सैकड़ों सालों तक शोषक जातियों ने अपना अधिकांश जीवन/मानसिक/सामाजिक ऊर्जा समाज के बहुसंख्य को अघोषित दास बनाए रखने में लगाया। इससे पूरा समाज जड़ हो गया। शोषक जातियाँ भी और शोषित जातियाँ भीं। यदि मानवीयता व सामाजिकता के व्यापक संदर्भों में सूक्ष्मता से देखा जाए तो जाति-व्यवस्था ने शोषक व शोषित दोनों ही वर्गों की जातियों को जड़ता व कुंठा के विद्रूप स्तर तक पहुंचाया है। किंतु शोषक जातियों के लोग अपने विद्रूप अहंकारों और स्व-केंद्रित-स्वार्थ को जीवन का परम-लक्ष्य मानने के कारण, अब भी यह चिंतन करने को तैयार नहीं हैं कि भारतीय समाज भीषण रूप से जड़ हो चुका है, सड़ांध से भरपूर है। और इस सड़ांध के पराकाष्ठा तक पहुंचाने और समाज के लोगों की सोच, मानसिकता, मूल्यों व भावों को जड़ करने व जड़ता में ही बनाए रखने में केवल और केवल जाति-व्यवस्था की परम्परा का ही हाथ रहा है।
शोषक जातियों को बिना वास्तविक पुरुषार्थ के ही उपलब्ध समस्त विलासिताओं को भोगने की बड़ी भयंकर लिप्सा हमेशा से रही है और आज भी है। और इसी लिप्सा-भोग प्राप्ति के लिए किए जाने वाले विभिन्न प्रायोजनों को हम सामाजिक परिवर्तन, समाज निर्माण व देश का विकास आदि के लुभावने नामों से प्रायोजित करते आए हैं। यह लिप्सा ही सामाजिक आरक्षण अर्थात् जाति-व्यवस्था का मूलभूत कारण रही और आज भी हमारे समाज की जड़ता के मूलभूत कारकों में से है।
दुखद है कि खुद को बहुत जागरूक मानने वाले और खुद को सामाजिक चेतनशील मानने वाले लोगों में, जो शोषक जातियों के हैं, अपने स्वार्थ की लिप्सा व जातिगत श्रेष्ठता का अहंकार इतना अधिक है कि वे शूद्रों के प्रति सिर्फ इसलिए घृणा का भाव रखते हैं, क्योंकि शूद्र सत्ता में दावेदारी की बात करने लगा है और शोषक जातियों की महानता, ज्ञान और योग्यता में सवाल खड़े करने लगा है।
बिना सामाजिक ईमानदारी के “जाति-व्यवस्था” का पत्ता भी नहीं हिलने वाला। शोषक जातियों की ओर से जब भी जाति-व्यवस्था के विरोध की बात आती है तो केवल दो मुद्दों तक ही सीमित रह जाती है- “ संवैधानिक-आरक्षण “ और “ जाति-व्यवस्था की राजनीति “। दोनों ही मुद्दे शक्ति व सत्ता प्राप्त करने के अवयव हैं।
यदि शोषक जातियाँ सच में ही सामाजिक ईमानदार होतीं और जाति-व्यवस्था को खतम करने के लिए थोड़ा सा भी गंभीर प्रयास करतीं तो जाति-व्यवस्था कब की खतम हो गई होती। शोषक जातियों को केवल अपने अंदर से जाति-व्यवस्था की भावना वास्तव में खतम करनी है। इसके लिए बिना ढोंग के जीवंत रूप में जाति-व्यवस्था की भावना को गहरे से खींचकर खतम करने की जरूरत है। जो ईमानदार व मजबूत इच्छाशक्ति के साथ अपने अंदर गहरे जमी हुई घृणा व जाति-व्यवस्था की श्रेष्ठता के छुपे हुए अहंकार से खुद को बिना किसी ढोंग के बाहर निकालने से ही संभव है।
जाति-व्यवस्था लोगों के मन में बहुत गहरे स्थापित है जो शाब्दिक भाषणों, परिभाषाओं, लिखावटों आदि से खतम नहीं होगी। जाति-व्यवस्था का समाधान संवैधानिक व सामाजिक दोनों ही स्तर पर एक साथ ईमानदार प्रयासों से ही संभव है, इसके अतिरिक्त और कोई रास्ता भी नहीं ही है। यह समाधान ही नए समाज, नए देश व नए सामाजिक मूल्यों का निर्माण करेगा …. जो आज के मूल्यों से लाखों-करोड़ों गुना बेहतर व वास्तविक होगें और बिना कपट व धूर्तता के होगें।
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