विवेक ‘नोमेड’
सामाजिक यायावर
जब तक जाति जैसी सबसे पुरानी व सबसे घिनौनी सामाजिक दास व्यवस्था का समूल नाश नहीं होता| तब तक भारत में संवैधानिक आरक्षण खतम नहीं किया जा सकता है| भले ही पूरे देश को गृह युद्ध की आग में झोंक दिया जाए, तब भी नहीं| गृह युद्ध में 70-80 प्रतिशत शारीरिक मजबूत व संघर्ष करने वाले लोगों के समक्ष 25-30 प्रतिशत लोग कैसे ठहर पाएंगे। इसकी कल्पना भी दिलचस्प है।
महज सरकारी नौकरी व सुविधा व भ्रष्टाचार की नदियों में डुबकी लगाने की अय्याशी के भोग के लिए संवैधानिक आरक्षण का विरोध करने वालों को जाति व्यवस्था में स्वयं को शूद्रों की कैटेगरी में रख कर उन परंपरागत जुल्मों के बारे में भी सोचना चाहिए जो शूद्रों पर लगातार किए गए और आज भी किए जा रहे हैं| चंद सरकारी नौकरियों के न मिलने पर रात दिन आरक्षण को गाली देने वाले धूर्तों की सोच की इतनी छोटी सी भी हैसियत नहीं कि वे जाति व्यवस्था में शूद्रों की स्थितियों की कल्पना तक कर पाएं|
मुद्दा यदि योग्यता का है, तो आजादी के बाद सरकारी नौकरी के सर्वोच्च पदों व नीति निर्माता स्तर की नौकरशाही में रहते हुए भी देश व समाज के विकास में क्या योगदान रहा इसकी भी खुली बहस होनी चाहिए| योग्यता का मतलब परीक्षा में अंक पाना नहीं होता| शिक्षक कौन हैं, शिक्षा प्रणाली क्या है, परीक्षाओं के मापदंड क्या हैं ऐसी बहुत से गंभीर मसलों पर भी बहस होना चाहिए| योग्यता को साबित करने का दारोमदार टुच्ची व ओछी परीक्षाओं व उनमें प्राप्त अंकों तक ही सीमित करना सामाजिक खणयंत्र के सिवाय कुछ भी और नहीं। यदि मामला योग्यता का है तो बिना सरकारी नौकरी पाए, बिना सरकारी सुविधा पाए देश व समाज का विकास किया जा सकता है, तो दिखाइए योग्यता| या फिर योग्यता का मानदंड व कसौटी सिर्फ और सिर्फ सरकारी नौकरी व सुविधा व भ्रष्टाचार की ऐशबाजी तक ही सीमित है|
देश को आरक्षण ने बहुत कुछ दिया है, शोषण कम हुआ है, जाति की अभेद्य दीवारों पर धक्के लगे हैं। जिन लोगों को परंपरा में नालियों में रहते हुए जीवन यापन करने के लिए विवश किया गया उनने बेहतर स्थानो में बेहतर घर बनाए। जिन लोगों को परंपरा में शिक्षा का अधिकार नहीं दिया गया, उनने लिखना पढ़ना सीखा। जिन लोगों को परंपरा में कुंठित किया गया उनको दो कौड़ी की परीक्षाओं में प्राप्त अंकों को योग्यता का आधार व सबूत मानकर अयोग्य बताना नीचता व धूर्तता व बेशर्मी है।
योग्यता का लक्ष्य सरकारी नौकरी की अय्याशी भोगने तक ही क्यों सीमित रहती है। वैसे भी सरकारी नौकरियां लगातार घटाई जा रहीं हैं। योग्यता तो दिखावटी बहाना है, मामला तो सत्ता शक्ति व ऐशबाजी में भागीदारी न देने का है। देश के सर्वोच्च नौकरशाही स्तर के पदों पर कितने दलित पहुंचे, इस पर बहस होनी चाहिए। किसी भी स्तर की सरकारी नौकरी योग्यता के द्वारा प्राप्त की जाती आई है, यह कहना बेहूदी धूर्तता व बेहूदा मजाक के अलावा कुछ भी और नहीं।
भारत में जातिवादी धूर्तता की नीचता व टुच्चई की इंतहा यह है, कि यहां आज तक कभी भी एक पल के लिए भी आरक्षण का स्वागत अशूद्रों द्वारा नहीं किया गया। आरक्षण के विरोध के लिए बेशर्म व धूर्त तर्क दिए जाते हैं और साबित किया जाता है कि आरक्षण से देश व समाज का कितना नुकसान होता है। यह सारा खेल केवल और केवल सरकारी नौकरी को भोगने व सत्ता शक्ति के लिए ही किया जाता है।
सरकारी नौकरी व सत्ता शक्ति को भोगने की कड़ी में हजारों लाखों अशूद्र लोगो द्वारा आजादी के बाद से ही फर्जी जाति प्रमाणपत्र बनवा कर फर्जी तरीके से सरकारी नौकरियां को पाकर शूद्रों का शोषण किया गया है, उनका संवैधानिक हक मारकर संवैधानिक अपराध किया गया है। ऐसे धूर्त व नीचता भरे लोगों व समाज से वास्तविक संवेदनशीलता की अपेक्षा कैसे की जा सकती है।
वैसे यदि किसी सरकार में, किसी मीडिया में, किसी व्यापारी में, किसी में बिना जाति का समूल नाश किए संवैधानिक आरक्षण हटाने का बूता हो तो हटा दे। फेसबुक, व्हाट्सअप आदि में फर्जी बकवास करके खुद को कर्मशील, क्रांतिकारी व परिवर्तनकारी समझने वाले लोग यदि गृह युद्ध की विभीषिका पीढ़ी दर पीढ़ी झेल सकते हों तो भी आरक्षण को नहीं हटाया जा सकता है।
धूर्तता, नीचता, ढोंग व हिंसा से जबरिया सामाजिक समाधान मिलने के युग अब जा चुके हैं। समाज को अपनी वास्तविकता व वास्तविक हैसियत व क्षमता कभी नहीं भूलना चाहिए। सामाजिक समाधान के लिए सामाजिक ईमानदारी अब जरूरी है। हमें अपनी नीचता, टुच्चई, धूर्तता, कपटता व कमीनीपंथी भरे ढोंग से बाहर आने का प्रयास करना चाहिए।