मेरी संसद में
संजीबा मेरी संसद में बैठे हैं – काठ की कुर्सियों पर काठ के उल्लू , वे जब लौटेंगे दिल्ली से तो झूठ पर नये सपनों/ नारों वादों का मुल्लमा चढ़ाके हाय ! री कमबख्त सरकार तेरे विश्वास पर मर गया इंतजारी में अपनी ही देहरी पर हाड़ का उल्लू , सचमुच हम कब तक मरेंगे – जियेंगे इस हुकूमत की इस व्यवस्था में अफ़सोस मैं उनसे लड़-के क्यों नही मरता… Continue reading