संजीबा की कविता – नवरात्रि

Sanjeeba  कभी बेलन से पीट दियाकभी मुगरी से ठोक दिया, कभी बाल पकड़करदीवाल पर दे मारा,जब कुछ नही मिला तो Sanjeebaहरामज़ादी कुतिया ही बोल दिया,फिर भी ये सालभरअपने ही घरों मेंखामोश कैद रहती हैंक्योंकि नवरात्रि में ये लड़कियांअपने सगे मां- बाप सेनौ दिन दही पेड़ा खाकरटॉफी के लिएशायद  कुछ पैसा ले लेती हैं….

मेरी संसद में

संजीबा मेरी संसद में बैठे हैं – काठ की कुर्सियों पर काठ के उल्लू , वे जब लौटेंगे दिल्ली से तो झूठ पर नये सपनों/ नारों वादों का मुल्लमा चढ़ाके हाय ! री कमबख्त सरकार तेरे विश्वास पर मर गया इंतजारी में अपनी ही देहरी पर हाड़ का उल्लू , सचमुच हम कब तक मरेंगे – जियेंगे इस हुकूमत की इस व्यवस्था में अफ़सोस मैं उनसे लड़-के क्यों नही मरता… Continue reading