Share Tweet Share Share विद्या भूषण रावतराजस्थान के जलोर जिले के सायला क्षेत्र के सुराना गाँव मे स्थानीय सरस्वती विद्या मंदिर स्कूल के तीसरी कक्षा के एक बच्चे इन्द्र कुमार मेघावल को स्कूल टीचर छैल सिंह ने इतना मारा के 23 दिन तक संघर्ष करने के बाद एक नर्सिंग होम मे उसकी मौत हो गयी। ऐसा कहा गया कि छैल सिंह के क्रोध का कारण बच्चे इन्द्र का उसके पानी पीने के मटके को छू देने का है। घटना 20 जुलाई की है और पहले इस घटना की गंभीरता का पता नहीं चला क्योंकि परिवार के लोग अलग अलग अस्पताल मे उसे दिखा रहे थे लेकिन जब स्थिति गंभीर हो गई तो वे उसे गुजरात मे अहमदाबाद दिखाया गया जहा 13 अगस्त को उसकी मृत्यु हो गई। घटना के बाद से ही जालोर मे तनाव व्याप्त है और जिला प्रशासन ने इंटरनेट सेवाओ को बंद कर दिया है। देश भर मे सोशल मीडिया मे दलितों के आक्रोश के बाद राजस्थान सरकार ने एस एसटी ऐक्ट लगाते हुए छैल सिंह को गिरफ्तार कर लिया. 14 अगस्त को इन्द्र कुमार मेघवाल के शव को लेकर जब लोग सरकार से अपनी मांग करना चाहते थे तो पुलिस ने जोर जबरदस्ती से उसका अंतिम संस्कार करा दिया। दरअसल ये पुलिस का हाथरस मोडेल है वैसे पहले भी पुलिस इस प्रकार के घटनाक्रम मे लोगों को एकत्र होने से रोकने के लिए ऐसा करती है। राजस्थान सरकार ने इन्द्रकुमार के परिवार को पाँच लाख रुपये की आर्थिक मदद की है जो दरअसल एस एसटी ऐक्ट के अधीन ही है। विभिन्न सामाजिक कार्यकर्ताओ की मांग थी कि राज्य सरकार को स्थिति की गंभीरता को देखते हुए तुरंत कार्यवाही करनी चाहिए थी लेकिन अशोक गहलोत ने इस पर देर से कार्यवाही की और परिवार को आर्थिक मदद भी बेहद कम थी। यह वही गहलोत है जिन्होंने अभी कुछ दिनों पहले उदयपुर मे अंतकवादियों के द्वारा मारे गए टेलर मास्टर कन्हैया लाल के परिवार को पचास लाख की मदद की और उसके दोनों बेटों को नौकरी देने का वायदा किया। सवाल ये है के अशोक गहलोत इस मामले मे क्यों ढीले दिखाई दे रहे है ? वैसे देखा जाए तो विपक्षी भाजपा भी इस विषय को उस तरीके से नहीं उठा रही है और वह इसे केवल काँग्रेस सरकार की असफलता कह रही है। इस विषय मे बसपा ने ही पूरी ताकत से सवाल खड़े किए है लेकिन ग्राउन्ड मे तो चंद्रशेखर आजाद और उनकी पार्टी के लोग ही दिखाई दे रहे है।घटना को लेकर दो प्रकार की प्रतिक्रिया आ रही है। अधिकारी और छैल सिंह के परिवार और मित्र लोग ये कह रहे है के छुआछूत की कोई घटना नहीं थी क्योंकि स्कूल मे तो सभी बच्चों के लिए के नल लगा हुआ है। ये भी बताया जा रहा है के स्कूल मे कुल 8 अध्यापकों मे से 5 दलित समाज से है और पहले से ऐसा कोई आपराधिक रिकार्ड नहीं है छैल सिंह का। कई लोग इन्द्र के परिवार वालों और छैल सिंह के लोगों के बीच समझौता की बातचीत का औडियो भी चला रहे है के यहा कोई जातिवाद जैसी बात नहीं है। स्कूल के एक दलित अध्यापक का विडिओ भी कही चलाया गया है के उनके स्कूल मे कोई भेदभाव नहीं होता। मान लीजिए कि स्कूल मे भेदभाव नहीं होता जो मेरे दृष्टिकोण मे बहुत असंभव है। यह उत्तर प्रदेश की बात होती तो मै ये समझ सकता हूँ के अभी बाते इतनी आसान नहीं है हालांकि भाजपा के सत्ता मे आने के बाद से सवर्ण जातियों की चौधराहट बढ़ी है और दलितों पर हमले भी बढ़े है लेकिन फिर भी वहा लोग लड़ रहे है क्योंकि बसपा के उदय के बाद से ही उत्तर प्रदेश मे बहुत बदलाव आए है। फिर पिछड़े समुदायों की पार्टिया भी खड़ी हुई है लेकिन उनके अपने अंतरदवंदों का लाभ मानुवादी शक्तियों को मिला है हालांकि इस पर चर्चा किसी अन्य आलेख मे होगी क्योंकि यहा हम राजस्थान की बात कर रहे है। राजस्थान मे त्राशदी यह है के दलितों का कोई स्वायत्त नेतृत्व नहीं है और उन्हे दो उन पार्टियों पर निर्भर करना पड़ता है जिनका अधिकांश नेतृत्व जातिवादी है। अभी एक विधायक ने त्यागपत्र दिया है लेकिन क्या ये समाधान है ? सवाल इस बात का है के 22 जुलाई को इन्द्र को अध्यापक ने मारा लेकिन इतने दिनों तक क्या लोगों ने कोई प्रयास किए। मतलब ये के क्या इस घटना का पता राजस्थान के जन संगठनों को था या नहीं ? यदि था तो उन्होंने क्या प्रयास किए और यदि नहीं तो ये उनकी असफलता है। इस घटनाक्रम से दो बाते उभर के सामने आ रही है। एक यह के राजस्थान मे दलित उत्पीड़न बेहद अधिक है और उत्पीड़न करने वाली जातिया राजपूत, जाट और गुर्जर हैं। अब कौन ज्यादा और कौन कम है इसमे मै नहीं जाओंगा। मुझे नहीं पता के ब्राह्मणों का कितना बरचस्व है वैसे परंपरागत राज्य होने के कारण ब्राह्मणों की सांस्कृतिक सत्ता तो बरकरार है । लेकिन मुख्य सवाल ये है के अशोक गहलोत इस प्रश्न पर बात करने को क्यों तैयार नहीं। क्या सवर्ण लोग अपने किसी अपराधी को अपराधी मानने को तैययर नहीं है ? क्या कोई जाति पंचायत की बैठक हुई है जिसने सरकार पर कोई दवाब बनाया है। यदि राजस्थान मे पानी को लेकर कोई छुआछूत नहीं है तो सरकार बताए नहीं तो स्कूलों का सर्वेक्षण करवाए के वहा दलितों के साथ कैसा व्यवहार होता है। अपराधी राजपूत, राजपुरोहित या भौमिक राजपूत क्योंकि इस देश मे किसी भी घटना का महत्व उसकी बीभत्सता या क्रूरता से ज्यादा इस बात का होता है के ‘अपराधी’ किस जाति का है क्योंकि हर बात मे राजनीति होनी है इसलिए अलग अलग नेरटिव जातियों के अनुसार बन जाते है। एक शुद्ध मानवाधिकार उल्लंघन का मामला जातिगत राजनीति का हिस्सा बन जाता है। बहुत से लोगों ने कहा के आरोपी अध्यापक छैल सिंह राजपुरोहित समाज से आता है जो ब्राह्मण होते है। दूसरों ने कहा वो राजपूत है और इस प्रकार से लोगों के रिएक्शन जातीय समीकरणों के अनुसार आ रहे है। फ़िर ये बात सामने आई कि वह भौमिक राजपूत है जो राजस्थान मे पिछड़े वर्ग मे आती है और जालोर और उसके आस पास के इलाकों मे इस जाती का बहुत बड़ा दबदबा बताया जाता है। राजपूत इसे पूरी तरह से राजपूत नहीं मानते और ये अपने को किसी से कम नहीं समझते। मामला जो भी हो इनकी स्थिति भूमिहार लोगों के समान है जिनके पास जमीन है लेकिन ये अपने राजपूत कहते है। अब बात ये है के चाहे किसी भी जात का हो, मामला दलित उत्पीड़न का है और उसकी भयवाहता का है इसलिए इसकी न केवल कटु निंदा होनी चाहिए लेकिन ऐसा उदाहरण पेश किया जाए कि स्कूलों मे कोई ऐसी हरकत न कर सके। दुर्भाग्यवश, जो लोग अभी गुजरात मे पिछड़े वर्ग के छात्रों द्वारा दलित वर्ग की महिला द्वारा बनाए गए खाने के बहिष्कार पर चुप्पी साधे थे वे खासा ऐक्टिव हो गए। जिन्होंने तमिलनाडु मे 60 वर्षों बाद भी दलित महिला सरपंच को तिरंगा न फहराने देने की धमकी को लेकर एक शब्द नहीं बोला वो भी आज हैश टैग पर हैश टैग चलाए जा रहे है। सवाल इस बात का नहीं है के राजपूतों ने या पिछड़ो ने या ब्राह्मणों ने छुआछूत की है, सवाल ये है के क्या हम इस पर ईमानदारी से बहस करेंगे। जब एक बच्चे के साथ अन्याय हुआ तो हमे बोलना होगा। छुआछूत का सवाल वर्नवादी व्यवस्था का सवाल है जिसने हम सभी को प्रभावित किया है। ये प्रश्न हमारी चरमराती राजनैतिक व्यवस्था का भी है जो हर मुद्दे को वोट की राजनीति से तोल कर, उसके नफे नुकसान के आधार पर कोई निर्णय लेती है। अब जो कहानिया या रही है वे इस प्रकार है। बताया गया है के सरस्वती विद्या मंदिर एक निजी स्कूल है जिसके दो पार्टनर है। एक छैल सिंह था और दूसरा जिंगर, दलित समाज से आता है। ये भी बताया जा रहा है कि स्कूल मे कुल 8 अध्यापकों मे से 5 दलित वर्ग के है और मटके जैसे कोई बात ही नहीं है बस अध्यापक ने मार दिया था। दरअसल ये बताने मे सब पूरी ऊर्जा लगा रहे है के ‘छुआछूत’ नहीं होती। गाँव अच्छा है। हाँ, गाँव अच्छे इसलिए होते है कि हर जाति कि अपनी ‘गिरोहबंदी’ है और सब अपनी ‘लिमिट’ जानते है। जब तक दलित खेत मजदूर, सफाई का काम आदि पारंपरिक काम करते रहेंगे किसी को क्या परेशानी। दरअसल परेशानी तो तब है जब एक सफाई कर्मी का बेटा अच्छे कपड़े पहन ले और बुलेट चलाए या वह बड़ी बड़ी मूँछों पर ताव दे कर सेल्फ़ी ले या शादी मे घोड़े पर सवार होने की जिद करे। अब परम्पराओ मे ये सवर्णों के लिए निर्धारित है हालांकि ये पितृसत्ता ही ही लेकिन ये ब्राह्मणवादी पितृसत्ता है जिसे वे दलितों मे भी नहीं जाने देना चाहते। असल मे दलित मूलतः इन परम्पराओ के बिना ही अच्छे है लेकिन ऐसी परम्पराओ पर क्यों चले जिन पर ब्रह्मणवाद का कॉपीराइट है। अब सवाल आता है के मास्टर साहब ने बच्चे को कितना मारा ? मुझे तो नहीं पता लेकिन एक हकीकत है। चलिए मान लिया के उन्होंने बच्चे को जाति के आधार पर न मारा हो लेकिन मारा तो है। और शायद बेरहमी से मारा तभी तो बच्चे की हालत खराब होगई। क्या अध्यापक द्वारा बच्चे को मारा जाना अपराध नहीं होना चाहिए। मै इस प्रकार की मार का भुक्तभोगी हूँ। उस समय मै चौथी कक्षा का छात्र था और सरकारी नगर पालिका स्कूल मे पढ़ता था। सबसे किनारे की पंक्ति मे आगे से दूसरे नंबर पर बैठा था। हमारे गुरुजी जिन्हे भट जी कहते थे, गणित पढ़ा रहे थे। वो दौर ऐसा था था जब हम सभी जमीन पर बैठते थे। गुरु जी को मेरे ऊपर गुस्सा आ गया क्योंकि मैंने सवाल का उत्तर लिखने की बजाए प्रश्न ही कॉपी मे लिख दिया। उन्होंने मुझे लातों से मारना शुरू किया और फिर जब लाते थक गई तो बेत से मेरे ऊपर हमला बोला। मेरा सर फट गया और खून बहने लगा। गुरु जी थोड़ा सहम गए और उन्होंने मुझे तुरंत घर भेज दिया। रोते हुए मै घर वापस गया तो मेरे पिता ने स्कूल के प्रधानाध्यापक को इसके विरोध मे एक पत्र लिखा। गुरु जी ने आइंदा से मेरे ऊपर हाथ नहीं उठाया लेकिन उनके कारण मेरे दिल मे जो डर बैठा वो उस क्लास से पास होकर ही खत्म हुआ जब मैं पाँचवी मे चला गया और स्कूल के प्रधानाध्यापक ही हमारे गुरु जी थे और बहुत प्रेम से हमको पढ़ते थे। उसे स्कूल मे दूसरी कक्षा मे मेरे गुरु बेहद हंसमुख स्वभाव के थे और मुझसे अपना कान पकड़वाते थे। चौथी कक्षा की मार इतनी भयंकर थी कि मैंने उन अध्ययपक को जिंदगी भर न माफ किया और न ही उनसे बात की हालांकि वह बहुत बार दिखाई दिए। हमने भी प्राइमेरी कक्षा मे गुरु जी के लिए पानी भरा, उनके घर के काम किए। लड़कियों को खाना बनाने की और लड़कों को दूर नल से पानी भरने का काम मिलता था लेकिन उन कामों को हम खुशी से पूरा करते थे क्योंकि सबको क्लास छोड़कर बाहर जाने का दिल करता था। इसका मतलब यही था कि हमारी शिक्षा प्रणाली ऐसे थी कि वह बच्चों को शिक्षा की तरफ आकर्षित नहीं कर सकती थी, उन्हे कोई सार्थक शिक्षा नहीं दे सकती। ये संस्मरण मै इसलिए दे रहा हूँ क्योंकि बच्चों को बेरहमी से मारने की घटनाए होती है और वो उस बात को घर पर भी नहीं बताया सकते। गांवों मे अध्यापक जातीय दुराग्रह से भी मारते है। उत्तर प्रदेश के कई इलाकों मे अभी भी टीचर दलित बच्चों से दूर रहते है और हाथ से मारने की बजाए, लंबी सोटी का इस्तेमाल करते है ताकि बच्चे मे डर भी बना रहे और ‘छूत’ भी न हो। आज भी गांवों मे लोगों मे एक धारणा व्याप्त है के ‘बुजुर्ग’ दिखने वाला अध्यापक जो बच्चों को ‘खूब’ पीटता हो, अच्छा माना जाता है। मैंने ये प्रयोग भी करके देखा था जब मैंने अपने केंद्र मे बच्चों को पढ़ाने के लिए नौजवान अध्यापक रखे तो लोगों को पसंद नहीं आए क्योंकि उन्हे गाँव के बुजुर्ग मास्टर जी ही पसंद थे जो बच्चों को गिनती पहाड़े सुनाने के लिए कहते थे और पीछे बैठकर सुनते रहते थे और जो बच्चा कुछ गलत बोल दिया तो फिर सोटी घुमा देते है। मैंने मास्टर जी को कहा के वह बच्चों को न मारा करें लेकिन बाद मे पता चला कि उन्हे तो गाँव के लोगों का समर्थन कि वह बहुत अच्छा पढ़ाते है। आज राजस्थान मे जो हुआ है वो शर्मनाक और निंदनीय है। हम अपने बच्चों के साथ कैसा व्यवहार करते है वो दिखाई देता है लेकिन उससे भी खतरनाक ये तब होता है जब समाजों के बीच मे इसको लेकर अलग अलग नेरटिव बनने शुरू होते है। अब सवर्णों का समूह ये कह रहा है के दलितों की और से बाहर के लोग इसको हवा दे रहे है और छैल सिंह ने ऐसे ही चांटा मारा होगा तो ये बात तो नहीं पचती। पानी की टंकी के हाल भी दिखाई दे रहे है और ये के वो तो नई नई लग रही है जिसे मैनेज किया गया है। वैसे स्कूलों मे अध्यापक अपना पानी हमेशा से ही अलग से लाते है और ये तो गारंटी है कि अध्यापक उस नल से पानी पी ही नहीं सकते जो हम फोटग्रैफ मे देख रहे है। नेरटिव मे ये अंतर भारत की जातीय विभाजन को दिखाता है और ये इसलिए होता है क्योंकि संविधान की शपथ लेकर जो लोग अपने पदों पर पहुंचते है वे उसके प्रति ईमानदार नहीं है। हमारा संविधान सत्ता तक पहुँचने की गारंटी है लेकिन वहा पहुंचकर हम अपनी जातियों के प्रति ही प्रतिबद्ध होते है इसलिए न्याय मिलने मे देरी होती है और लोगों का भरोसा टूटता है। यदि कानून का शासन ईमानदारी से होता तो लोगों को पुलिस और प्रसाशन की रिपोर्ट पर भरोसा होता। फिर अफवाहे मजबूत न होती और फिर लोग अपनी अपनी बिरादरी के अनुसार ‘सच’ नहीं ढूंढते। सत्ता के मनुवाद ने लोगों को अपनी अपनी जातियों के अनुसार घटनाओ को देखने की आदत डाल दी। आप कहते है भारत और पाकिस्तान, हिन्दू और मुसलमान लेकिन हकीकत यह के हर जाति अपने नेरटिव के अनुसार चल रही है और यही कारण है के न्याय नहीं मिलता देश मे पाँच हजार से अधिक किस्म के जातीय ‘सच’ और जातीय ‘इतिहास’ है। जातिभेद का यह कोढ़ भारत को खाए जा रहा है लेकिन नेता क्या अभिनेता सभी इस पर तब शिकायत करते है जब आरक्षण का मसला सामने आता है तो कहा जाता है के ‘आर्थिक आधार’ पर आरक्षण होना चाहिए। सरकार ने जिस बेशर्मी से आरक्षण को तोड़ है और शक्तिशाली जातियों के प्रसासन मे आने का रास्ता बिना यू पी एस सी के बनाया है उसने ताकतवर और सत्ताधारी जातियों मे संदेश भेजा है के वे अपने काम मे लगे रहे और घटनाओ के नेरटिव बदल दे। आज यही शक्तिसाली जातिया गांवों मे मनुवाद का महिमा मण्डल कर रही है। बाबाओ और ज्ञानियों के ‘सत्संग’ गांवों मे लगातार चल रहे है जिसमे न केवल जातिप्रथा को सही ठहराया जा रहा है अपितु लोगों को इतना भ्रमजाल मे फँसाया जा रहा है जैसे हमारी संस्कृति से अच्छा कोई नहीं है। मोदी और संघ की ‘स्वर्णिम भूत’ वाला नेरटिव हर एक समुदाय मे जोर पकड़ रहा है। हर एक को अपने ‘महान’ भूत काल को खंगालना पड़ रहा है इसलिए ‘धर्म संसद’ भी अपने हिन्दू राष्ट्र का ‘संविधान’ तैयार कर रही है जो वर्ण व्यवस्था पर आधारित हो। जब अपनी महानता की बाते बार बार दोहराई जाएंगी तो किसके पास समय है के वह ये कह सके कि हमारी संस्कृति मे जरूर अच्छी बाते रही होंगी लेकिन उसकी बुराइयों पर चर्चा करने पर क्या प्रतिबंध है ? क्या जातिवाद और छुआछूत के प्रश्न पर हमारे प्रधानमंत्री ने कभी एक शब्द कहा ? अगर वह चाहते तो ‘स्वच्छ भारत अभियान’ को सीधे सीधे मैनुअल स्कवेनजिंग खत्म करने और स्वच्छकर समुदाय का सम्मानपूर्वक पुनर्वास से जोड़ सकते थे लेकिन उन्होंने नहीं किया। बजाए इसके उन्होंने इसे इतने हल्के मे बना दिया जिसे लोग तमाशा बनाकर सेल्फ़ी खींचकर अपने दफ्तरों मे लगाने लगे। ऐसे ही घर घर तिरंगा अभियान का हश्र हुआ और अंत मे पता चल के इसने उनके लोगों की 500 करोड़ से ऊपर की इंकम कर दी। गांवों मे गरीबों को जबरन तिरंगा बेचो और अपने दोस्तों को लाभ पहुचाओ। जालोर की घटना को इस संदर्भ मे देखे के भारत का राष्ट्रीय नेतृत्व इस पर बात नहीं करना चाहेगा। वो इसे भाजपा बनाम काँग्रेस के नजरिए से बनाकर चुनावी लाभ लेने के प्रयास करेगा लेकिन ये सवाल दलगत राजनीति का नहीं है। ये सवाल है हमारे समाज मे व्याप्त जातिवाद और छुआछूत का जिस पर चर्चा करने के लिए हम सब तैयार नहीं है। क्या हमारी संसद मे दो दिन केवल इस बात को लेकर ही बहस हो सकती है ? क्या हमारे देश की संसद छुआछूत और जातिभेद के बने रहने पर दलितों आदिवासियों से माफी मांग सकती है? जालोर की घटना इस बात का संकेत भी है कि हम एक लोकतान्त्रिक समाज नहीं है क्योंकि राजनीति मे वोट देने से सामाजिक बराबरी अभी तक नहीं आई और मनुवादी सामंतवाद की जड़े मजबूत है और उसके आगे हमारा राजनैतिक लोकतंत्र असहाय है। क्या सरकारे इस सवाल पर ईमानदारी से बहस करेंगे ? क्या हमारा प्रशासन तंत्र इस बात को ईमानदारी से सोचेगा कि क्यों वह निष्पक्ष होकर काम नहीं कर पा रहा जिससे उत्पीड़ित परिवार का भरोसा उस पर कायम हो ? कब तक आप हरएक राजनैतिक और सामाजिक प्रतिरोध को राष्ट्र विरोधी और अराजक तत्वों द्वारा प्रायोजित कहते रहेंगे ? ये राजस्थान की बात ही नहीं है कि वहा के गांवों मे ही आज भी वर्णव्यवस्था का राज है। ये कहानी तो भारत के गांवों की है और शहरों मे भी उसका स्वरूप बदला है। पहले मीडिया मे थोड़ा शर्म होती थी तो कुछ ईमानदारी दिखा देते थे लेकिन अभी तो बेशर्मी से जातिवादी मीडिया ये बताने की कोशिश कर रहा कि ये मामला छुआछूत का नहीं है, कोई मटकी नहीं थी क्योंकि वहा बड़ा नल था। इतनी मेहनत करने की क्या जरूरत है ? केवल ये बता दीजिए कि क्या राजस्थान के गांवों मे छुआछूत खत्म हो गई है। भारत के गांवों मे ‘भाई चारे’ का असल मतलब ये है कि सब लोग अपने अपने परंपरागत काम मे खुश है और किसी को कोई परेशानी नहीं है। यानि, जब तक लोग जातिप्रथा की व्यवस्था को मान रहे है तब तक कोई परेशानी नहीं और यदि कही कोई गुस्ताखी हुई तभी गाँव का तांडव नजर आता है। सवाल इस बात का है के हमे सब कुछ पता है और परेशानी तब होती है जब कोई बात ‘खबर’ बन जाती है। आप घटना क्रम का अंतर देख सकते है। जब एक मुस्लिम आतंकवादी ने कन्हैया लाल की हत्या की तो उदयपुर मे कई दिनों तक तनाव था और हिन्दुत्व के प्रहरी सबको ललकार रहे थे। सोशल मीडिया मे तो वो वैसे भी वीर है चाहे सीमा पर कभी गए न हो, लेकिन जालोर की इस घटना पर वे चुप है। ऊपर से मीडिया इसमे कोई मनुवादी साजिश नहीं देखता केवल पूरे प्रश्न को भाजपा काँग्रेस के नजरिए से देखकर नए चुनाव की तैयारी हो रही है। मैंने ये बात कई बार कही है और आज भी दोहरा रहा हूँ कि भारत की मुख्य समस्या जातीय भेद और छुआछूत है लेकिन महान संस्कृति का ढोंग रचने वाले इन सवालों पर ऐसे चुप रहते है जैसे ये सब अचानक से हो रहा है और फिर हम पूरी घटना को एक व्यक्तिगत हिंसा के नजरिए से देखते है। इन सभी कांडों मे हम लोग उत्पीड़क की जाति तराशते है ताकि हमले का मौका रहे। अब चाहे वह राजपूत हो या यादव, ब्राह्मण हो राज पुरोहित, भूमिहार हो या थेवर, वॉकलिंगा और लिंगायत हो या रेड्डी, जाट, गुर्जर हो या मराठा, वनियार हो या कममा या कापूस या कुशवाहा, दलितों पर हमला करने मे कोई पीछे नहीं रहा है और न ही ऐसा हो गया है कि इन जातियों ने अपने अंदर से जातीय अहंकार या जातीय घृणा कम कर दी हो। अगर इस लड़ाई को मात्र कानूनों तक सीमित रखेंगे तो हमेशा संघर्ष होंगे लेकिन यदि आज समुदायो के अंदर से लोग और संघठन खड़े हो जाए और ऐसे घृणित काम को नकारे और नए सिरे से गांवों मे सामाजिक लोकतंत्र बनाए तो फिर बात बन सकती है। यदि विभिन्न जातियों के लोग ये चाहते है के एक व्यक्ति की हिंसा या कुकर्म के कारण सारे समाज को बदनामी न झेलनी पड़े तो सबको हिंसा और घृणा का प्रतिकार करना पड़ेगा। जातिया सर्वोच्चता के सिद्धांतों को खारिज करना पड़ेगा और कम कम लोगों को उनके तरीकों से रहने, खाने, पहनने की तो छूट होनी पड़ेगी। शासन के लिए जरूरी है के उसके अधिकारी अपनी जातियों के प्रति नहीं संविधान के प्रति समर्पित बने और समय सीमा के अंदर अपनी जांच खत्म करें। एस सी एस टी ऐक्ट के तहत कितने मामले अपने अंत तक पहुंचे है इसकी जांच हो। क्यों मामले अंत तक नहीं पहुंचे है बताए। राजस्थान मे दलितों के नरसंहार की सबसे बड़ी घटना 5-6 जून 1992 मे कुमहेर मे हुई थी जिसमे जाटों ने 17 दलितों को जिंदा जला दिया गया था लेकिन 30 वर्षों बाद भी इस घटना के कातिलों को सरकार सजा नहीं दिला पाई। इसी वर्ष अंबेडकर जयंती पर गूजरों ने दलितों पर हमला किया था। सरकार और समाज दोनों को इन मसलों पर गंभीरता से विचार करना होगा कि आखिर दलितों पर हो रहे इन क्रूर हमलों के मूल मे हमारी जातिवादी मनुवादी व्यवस्था है और अगर स्कूलों, कालेजों, खेतों, गाँव की चौपालों, विधान सभा और संसद मे इस पर चर्चा नही होगी तो कहा होगी। जातिवाद के खिलाफ लड़ाई मे हमसब को आना होगा। अपनी सुविधाओ के अनुसार क्रांतिकारी दिखने वालों से बचना पड़ेगा और कानूनों मे प्रावधान कर मुआवजे की राशि को बढ़ाया जाए, एफ आइ आर लिखने मे देरी और पोस्ट मॉर्टम के समय मे उपस्थित लोगों का विवरण भी आधिकारिक तौर पर होना चाहिए। अगर किसी गाँव या व्यक्ति के विरुद्ध दलितों के खिलाफ हिंसा या धमकी की लगातार शिकायते आए तो उस पर न केवल जुर्माना लगाना चाहिए अपितु सरकारी योजनाओ का लाभ उन जातियों या व्यक्तियों को बिल्कुल न दिया जाए जो जातिवादी हिंसा और छुआछूत करती है। आज जरूरत इस बात की है कि बात बात पर बुलडोजर चलाने वाले और उसे पसंद करने वाले लोग छुआछूत और जातिवाद के खिलाफ बुलडोजर चलाने की बात कब करेंगे ? फिलहाल, अशोक गहलोत और काँग्रेस पार्टी की इस विषय मे निष्ठा पर भी सवाल है क्योंकि राहुल गांधी और प्रियंका ने इन्ही जैसे सवालों पर हाथरस और उन्नाव कांड मे आंदोलन किया लेकिन राजस्थान के सिलसिले मे वह चुप रहे या बहुत देर से बोले, ये निराशाजनक है। जातिवाद और छुआछूत को लेकर काँग्रेस पार्टी को अपना मन्तव्य साफ करना चाहिए और भविष्य मे वह किस प्रकार से इस सवाल का समाधान चाहती है उस पर भी बात रखनी पड़ेगी। फिलहाल, हम उम्मीद करते है के राजस्थान कि इस घटना की फास्ट ट्रैक कोर्ट मे जांच हो और इन्द्र कुमार के परिजनों को पर्याप्त मुआवजा और उनके परिवार की अन्य मांगों को राजस्थान सरकार को शीघ्र पूरा करना चाहिए । Vidya Bhushan Rawat
2comments loading ... Leave a comment: Name * Email * Website Save my name, email, and website in this browser for the next time I comment. Comment