सोशल इंजीनियरिंग या जाति-आधारित वोट इंजीनियरिंग : उत्तर प्रदेश चुनाव विश्लेषण —— Vivek Glendenning Umrao

Vivek Umrao
The Founder, CEO, and the Editor, Ground Report India

अनुवाद सहयोग — रजनीश संतोष

विवेक उमराव द्वारा लिखे अंग्रेजी-लेख का हिंदी अनुवाद करने में अनुवाद-सहयोग दिया है रजनीश संतोष ने। रजनीश अपने नाम के आगे अपनी माता का नाम लगाते हैं, रजनीश संतोष। रजनीश के माता-पिता सामान्य आर्थिक परिवेश के किसान हैं, आर्थिक समस्याओं के साथ रजनीश का पालन-पोषण किया है। इसके बावजूद रजनीश के ऊपर कभी किसी प्रकार का दबाव नहीं देते आए हैं। रजनीश को बचपन से ही निर्णय लेने के अधिकार रहे हैं, रजनीश के माता-पिता बचपन से ही अपने बच्चों का आदर करते आए हैं, बच्चों की बातों का मान करते आए हैं। जबकि इस तरह की दृष्टि विकसित कर पाना पढ़े-लिखे व जागरूक कहे जाने वाले स्नातक, परा-स्नातक डिग्री धारी लोगों के भी बूते की बात नहीं होती है।

आठवीं कक्षा तक रजनीश अपने गांव से कई किलोमीटर दूर स्थिति स्कूल में पढ़ने जाते थे। आगे चल कर केमिकल इंजीनियरिंग से स्नातक किया। पहली नौकरी पाने के महज कुछ वर्षों में ही सालाना वेतन 40 लाख रुपए तक पहुंच गए। लगभग 39 - 40 वर्षीय रजनीश ने, जब लगभग 34 वर्ष की आयु में 2018 के पूर्वार्ध में 40 लाख रुपए सालाना की नौकरी छोड़ी और बताया कि अब नौकरी करने की इच्छा नहीं पैसा कमाने में जीवन गुजारते रहने में तुक नहीं दिखाई पड़ता। पिछले कई वर्षों से कोई नौकरी नहीं कर रहे हैं, पास में पैसे नहीं हैं, लेकिन फिर भी अभी कुछ दिन पहले भारत के बाहर दूसरे देश में जाकर की जाने वाली लगभग डेढ़ करोड़ रुपए की नौकरी का आफर केवल इसलिए ठुकरा दिया कि भारत से बाहर जाने का अभी मन नहीं है।

माता-पिता किसान हैं, सामान्य आर्थिक पृष्ठभूमि है, बच्चों की परवरिश में तकलीफें झेलीं इसके बावजूद माता-पिता ने रजनीश के निर्णयों का आदर व स्वागत करते हैं। नौकरी नहीं करने के संदर्भ में कहते हैं कि जीवन में पैसा व भागम-भाग नहीं, संतुष्टि व आत्म-साक्षात्कार सबसे मूल व महत्वपूर्ण तत्व है। जिसमें मन को खुशी मिले वैसा जीवन जिओ बस संवेदनशील जीवन जिओ, विचारशील जीवन जिओ। एक पिछड़े गांव में रहने व किसान होने के बावजूद रजनीश की माता इतनी अधिक प्रगतिशील हैं कि उन्होंने रजनीश से कह रखा है कि विवाह करने की इच्छा नहीं हो तो कोई बात नहीं, यदि किसी के साथ टुगेदर-लिविंग में रहना चाहो तो निःसंकोच बता देना, हम इस निर्णय का भी स्वागत व आदर करेंगे।

दमित जाति में जन्म लेना ईश्वर द्वारा दिया हुआ दंड है, शोषक जाति (ऊंची जाति) में जन्म लेना ईश्वर का आशीर्वाद है। इसे शोषक जातियों ने नहीं बनाया बल्कि ईश्वर ने ही शोषित और शोषक (ऊंची जाति) जातियों के बीच भेद किया है, ताकि समाज में व्यवस्था बनाए रखी जा सके और इसे बनाने के ईश्वर के उद्देश्यों को पूरा किया जा सके। दासता व शोषण रूपी जाति व्यवस्था को महान व ईश्वरीय व्यवस्था के रूप में प्रायोजित व स्थापित करने के लिए अनेकों दस्तावेज गढ़े गए, जिनके बारे में कहा गया कि ये दस्तावेज ईश्वरीय हैं या इस महान सामाजिक व्यवस्था को स्थापित करने और सुचारु रूप से चलाए रखने के लिए इसे स्वयं ईश्वर द्वारा बनाया गया था ताकि ईश्वर के सृजन के उद्देश्यों को पूरा किया जा सके। प्रत्येक दमित जाति कुछ विशेष कार्यों द्वारा शोषक जातियों (उच्च जातियों) की सेवा करने के लिए बाध्य थी। यदि कोई व्यक्ति अछूत जाति में पैदा हुआ है, तो वह व्यक्ति अपने पूर्वजों की तरह बिना किसी शिकायत के शोषक-जातियों (उच्च जातियों) की सेवा करता रहेगा। सदियों से, प्रत्येक दमित जाति के लाखों-करोडों सदस्यों को अपनी जाति-आधारित कुंठा व स्वयं के शोषित होने को ईश्वरीय प्रयोजन मानने की कंडीशनिंग विरासत में मिली थी।

शोषक जातियों द्वारा बड़ी आसानी से दमित जाति के नेताओं पर जातिगत-राजनीति का आरोप लगा दिया जाता है, लेकिन क्या वाकई दमित जातियों के पास और कोई रास्ता है !!

सोशल इंजीनियरिंग या जाति-आधारित वोट इंजीनियरिंग

दिसंबर 1989 से दिसंबर 2017 तक सत्ताईस साल की अवधि के दरमियान उत्तर प्रदेश की दमित जातियों के राजनीतिक वर्गों को तकरीबन उन्नीस साल सत्ता में रहने का अवसर मिला। सत्ता संघर्षों के साथ कई उतार-चढ़ावों के साथ उन्नीस वर्षों की इस अवधि ने दमित जाति के लोगों को उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में जाति-आधारित वोटों की शक्ति को समझने में मदद की, जहां अपने क्षेत्रों में जनसंख्या प्रभुत्व वाली कई जातियां हैं। सरकार के मुखिया भले ही दमित जातियों से थे लेकिन शोषक-जातियों (उच्च जातियों) का प्रभुत्व कम नहीं हुआ, बल्कि समय बीतने के साथ-साथ दमित-जाति के नेता सत्ता की सौदेबाजी के विशेषज्ञ बनते गए।

चूँकि कुछ दमित जातियाँ तुलनात्मक रूप से अन्य दमित जातियों की अपेक्षा थोड़ी मजबूत रही हैं इसलिए उन्होंने अपनी जागरूकता और संपत्ति का उपयोग करके राजनीतिक के क्षेत्र में अपनी दावेदारी पेश करने की क्षमता दिखाई। समय के साथ अन्य जातियाँ भी सत्ता में अधिक हिस्सेदारी की माँग करने लगीं । लेकिन 'बड़े भाई' ऐसा नहीं चाहते थे क्योंकि वे अच्छी तरह जानते थे कि यदि छोटे भाई मजबूत होते हैं तो वे बड़े भाइयों पर हावी हो जाएंगे, और बड़े भाई (संख्या में छोटे) अपनी सत्ता खो देंगे एवं उन्हें छोटे भाइयों (संख्या में बड़े) का पिछलग्गू बनना पड़ेगा ।

सत्ता के बंटवारे, समानता और एकता के मुद्दे पर दमित जातियों के बीच कभी आम सहमति नहीं बन सकी। वे राजनीतिक सत्ता के लिए सोशल-इंजीनियरिंग की बजाए वोट-इंजीनियरिंग के लिए कबीलों की तरह लड़ने लगे। शोषक-जातियों (उच्च जातियों) ने अपनी सत्ता को और मजबूत करने के लिए इसका इस्तेमाल किया। इसलिए, राजनीतिक सत्ता कभी भी सभी के साथ साझा नहीं की गई, और सामाजिक न्याय की दिशा में कोई कदम नहीं उठाए गए।

बड़े भाइयों ने शोषक-जातियों (उच्च जातियों) के साथ एक गठजोड़ बनाया, थोड़ा सा वोट इधर से उधर होने पर विधानसभा में कई सीटों का अंतर आ जाता है , जिसने शोषक-जातियों (उच्च जातियों) को राज्य-सत्ता का किंगमेकर और नीति नियंत्रक बना दिया, भले ही उन्होंने सरकार का नेतृत्व न किया हो।  शोषक-जातियां (उच्च जातियां) सीधे राजनीतिक सत्ता में नहीं थीं, फिर भी उन्होंने अपने वोटों को एक पार्टी से दूसरी पार्टी में घुमाकर राजनीतिक सत्ता को नियंत्रित किया।

चूंकि भारत की चुनाव प्रणाली ऐसी है जहाँ निर्वाचन क्षेत्र में प्राप्त मतों की संख्या से उम्मीदवार की जीत निर्धारित होती है, इसलिए एक लाख मतदाताओं के निर्वाचन क्षेत्र में दस मत प्राप्त करके भी कोई चुनाव जीत सकता है यदि अन्य उम्मीदवारों में से प्रत्येक को दस से कम मत मिलें। अगर कोई कोई दल जीती हुई सीटों वाले निर्वाचन क्षेत्र में भारी अंतर से जीते लेकिन अनेक दूसरी सीटों पर हार भी जाए तो वह कुल मिलाकर अधिक वोट पाने के बावजूद कम सीटों पर सिमट सकता है। यह ज़रूरी नहीं है कि एक पार्टी के कुल वोट प्रतिशत का जीती गई सीटों की संख्या से सीधा सम्बन्ध हो। जरूरी नहीं कि वोट प्रतिशत बढ़ने का मतलब अधिक सीटों पर जीत हो। कुल मतों में थोड़े से प्रतिशत की वृद्धि या कमी के साथ सीटें बहुत अधिक कम-ज्यादा हो सकती हैं।

भारतीय जनता पार्टी, भाजपा

2017 के पहले, सत्ताईस साल के दौर में भाजपा लगभग पांच साल तक सत्ता में रही थी। उन पांच वर्षों के दौरान, दमित जातियों में से एक कल्याण सिंह साढ़े तीन साल से अधिक समय तक सरकार के मुखिया थे। 2017 से पहले, भाजपा सरकार का आखिरी मुखिया एक शोषक जाति (उच्च जाति) से था। हालाँकि वे थोड़े समय के लिए (लगभग डेढ़ साल) सरकार के प्रमुख थे, फिर भी भाजपा अगले पंद्रह वर्षों तक सत्ता में नहीं आई। शोषक-जातियों (उच्च जातियों) द्वारा दमित जातियों का सीधे शासन करना अब स्वीकार्य नहीं था।

भाजपा के मुख्य समर्थक शोषक-जातियों (उच्च जातियों) से हैं। दिलचस्प बात यह है कि जब भाजपा कमजोर थी, तो इन जातियों ने दमित जातियों के राजनीतिक समूहों के साथ सौदेबाजी की, लेकिन उनका घर हमेशा भाजपा ही रहा है, और भाजपा इस बात को अच्छी तरह जानती थी। इसलिए भाजपा उन जातियों में घुसपैठ करने की कोशिश कर रही थी जिन्हें समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के शासनकाल में सत्ता में वास्तविक हिस्सा नहीं मिल रहा था।

हिंदू ध्रुवीकरण के जरिए वोट हासिल करने के लिए भाजपा ने नरेंद्र मोदी को अपने सबसे बड़े तुरुप के पत्ते के रूप में इस्तेमाल किया। 2017 में भाजपा ने उत्तर प्रदेश में चुनाव परिणामों से पहले सरकार के नेता की घोषणा नहीं की थी। इसलिए भाजपा से जुड़ी दमित जातियों का मानना था कि भाजपा उनके साथ सत्ता साझा करेगी और सरकार का मुखिया उन्हीं में से होगा। विधानसभा चुनाव में अपनी ऐतिहासिक जीत के साथ भाजपा ने दमित जातियों के 'बिग ब्रदर'(सपा, बसपा) को शर्मनाक पराजय दी। 

भाजपा ने सरकार के मुखिया के रूप में शोषक-जातियों (उच्च जातियों) के प्रतिनिधि को चुना। सत्ता के बंटवारे का दिखावा करने के लिए भाजपा ने वास्तविक सत्ता साझा किए बिना सरकार के उप प्रमुखों के रूप में कुछ पद सृजित किए, जिनका कोई विशेष अर्थ नहीं रहा। शोषक-जातियाँ (उच्च जातियाँ) लंबे समय के बाद सत्ता में आई थीं, नरेंद्र मोदी के कारण उनका मानना हुआ कि उनको सत्ता की प्राप्ति शोषित जातियों के जुड़ने से नहीं बल्कि हिंदू-कार्ड के कारण हुई। हालांकि उन्होंने यह नहीं देखा कि कई दमित जातियाँ अपने 'बिग-ब्रदर' से नाखुश थीं इसलिए वे इस उम्मीद में भाजपा में चली गईं कि यह पार्टी उनके साथ सत्ता वास्तविक रूप से साझा करेगी।

अजय मोहन बिष्ट उर्फ़ योगी आदित्यनाथ

भाजपा सरकार के मुखिया अजय मोहन बिष्ट उर्फ योगी आदित्यनाथ एक चतुर राजनेता नहीं, बल्कि एक हिंदू दक्षिणपंथी कार्यकर्ता प्रतीत होते हैं, जो दृढ़ता से मानते हैं कि जाति-आधारित व्यवस्था समाज के ढांचे को बनाए रखती है। जाति-आधारित व्यवस्था बहुत मजबूत रूप से शोषण आधारित संरचना है, यह मूल कारण है कि जाति-व्यवस्था में विश्वास करने वालों को सामाजिक न्याय और सहभागी लोकतंत्र में विश्वास नहीं होता है। इसके अतिरिक्त वह एक संप्रदाय के मठाधीश रहे हैं, जिसके कारण उनकी मानसिकता ऐसी है कि उनको लगता है कि उन्हें ब्रह्म की समझ है, उन्हें ईश्वरीय संरचनाओं व उद्देश्यों की गहरी समझ है, जबकि जो लोग उनके जैसे नहीं हैं, उन लोगों को ऐसी समझ नहीं होती। ये वे मूल कारक हैं जिनके कारण, उन्हें राजनीतिक सहयोगियों के साथ समझौते और असहमति के साथ काम करने की समझ नहीं है, जो उत्तर प्रदेश जैसे विविधता वाले समाज के लिए बहुत ही आवश्यक है।

हिंदू राष्ट्रवादी एजेंडे के तहत भाजपा उन्हें नरेंद्र मोदी के उत्तराधिकारी के रूप में देखती है, जो वर्तमान हिंदू ट्रम्प कार्ड हैं। यानी भाजपा उन्हें अगले प्रधान मंत्री के रूप में भाजपा के हिन्दू राष्ट्रवादी एजेंडे को आगे बढ़ाने वाले के रूप में देखती है। नरेंद्र मोदी के उदाहरण का अनुसरण करने के प्रयास में, अजय मोहन बिष्ट उर्फ योगी आदित्यनाथ ने सरकार बनाने में मदद करने वाले विभिन्न दबे-कुचले समूहों की सर्वसम्मति से शासन करने की कोशिश करने के बजाय हिंदू ट्रम्प कार्ड बनने पर ध्यान केंद्रित किया। हिंदू धर्म जाति जैसी भयंकर शोषणकारी, तानाशाही व सामंती मानसिकता वाली व्यवस्था के स्तंभों पर खड़ा है। इसकी कल्पना केवल इस बात से ही की जा सकती है कि केवल जाति विशेष में जन्म लेने के कारण ही कोई महा-विद्वान, महा-पराक्रमी या अछूत इत्यादि हो सकता है, मनुष्य को अपना जीवन इन्हीं कंडीशनिंग के साथ व्यतीत करना होता है। मूलतः यह कंडीशनिंग व्यक्ति व समाज को बचपन से ही अलोकतांत्रिक बनाती है, सामंती मानसिकता को भयंकर रूप से पोषित करती है।

किसान आंदोलन के एक साल के दौरान भाजपा की साख को भारी नुकसान पहुंचा है। साथ ही लोगों को लगने लगा, कि बीजेपी को आम आदमी की परवाह नहीं है, वोट पाने के लिए ही हिंदू कार्ड खेलती है, इसलिए वे हिंदू कार्ड से प्रभावित हुए बिना वोटिंग के बारे में सोचने की ओर गति करते हुए प्रतीत हो रहे हैं। संक्षेप में, ये कुछ मूलभूत कारण हैं जिनकी वजह से 2017 के भाजपा मतदाताओं का एक भाग पार्टी छोड़ रहा है, जो चुनाव परिणामों को प्रभावित करने के लिए पर्याप्त है।

समाजवादी पार्टी, सपा

एक समय था जब सोवियत संघ को एक मॉडल के रूप में देखते हुए तीसरी दुनिया के कई समाज समाजवाद और साम्यवाद से काफी प्रभावित थे। समाजवाद और साम्यवाद उधार एवं आधी-अधूरी समझ पर आधारित था, जिसके कारण इनमें से अधिकांश समाजों में सामंतवाद या तानाशाही विकसित व पोषित हुई। समाजवाद हो या साम्यवाद राजनीतिक सत्ताओं से नहीं, बल्कि समाज के लोगों की पारस्परिकता व सहभागिता से ही प्राप्त किया जा सकता है।

उत्तरप्रदेश में भी ऐसे कई समूह थे जिन्होंने समाजवाद की स्थापना का दावा करते हुए सत्ता प्राप्ति को समाजवाद की स्थापना व लक्ष्य के रूप में देखना शुरू किया। लेकिन समाजवाद और सामाजिक न्याय व्यक्तियों और समाजों के भीतर सहज आंतरिक आत्म-नेतृत्व के उभार के बिना इस तरह से प्राप्त नहीं किया जा सकता है, इसलिए समाजवाद का दावा करने वाले राजनैतिक समूह सत्ता प्राप्ति व सत्ता बनाए रखने के ताने-बाने के कुचक्र में समय के साथ भ्रष्ट होते हुए वैसे ही हो गए जैसे दूसरे राजनैतिक समूह थे। ऐसे कई समाजवादी राजनीतिक नेता रहे हैं जिन्होंने इन बिंदुओं पर गलतियाँ की हैं, सत्ता अहंकार आत्म-मूल्यांकन करने से रोकता है इसलिए गलतियाँ करने की निरंतरता बनी रहती है।

जनता पार्टी, जनता दल से लेकर समाजवादी पार्टी तक, सत्ता केंद्रों के माध्यम से समाजवाद की ओर यात्रा हुई। विशेष रूप से, सबसे बड़ी कमजोरी व्यक्तियों और समाजों के भीतर सहज आंतरिक आत्म-नेतृत्व की कमी थी। जाति व्यवस्था ने समाज में सफलता के लिए भ्रष्टाचार और घृणा को अनिवार्य रूप से स्थापित कर दिया है। जब दमित-जातियों को सत्ता मिली तो शोषक-जातियों के लिए इसे पचाना आसान नहीं था, इसलिए वे सत्ता के ढांचे को उलटने की कोशिश करते रहे। सदियों से चले आ रहे जाति-आधारित संगठित सामाजिक-भ्रष्टाचार का मुकाबला करते हुए, पूरी तरह से शोषक-जातियों (उच्च जातियों) के वर्चस्व वाली नौकरशाही के साथ काम करते हुए, चुनावी भ्रष्टाचार का मुकाबला करते हुए और अपनी सत्ता की लालसा को संतुष्ट करते हुए, दमित जाति के नेताओं ने कुटिल होने का शॉर्टकट अपनाया। अंत में, दमित जातियों के समूह (जिन्हें ऊपर बड़े भाई या बिग ब्रदर कहा गया है) जो सत्ता केंद्रों तक पहुंचे उन्होंने विशेषाधिकारों का आनंद लिया, लेकिन बाकी लोग उत्पीड़ित रहे। उत्पीड़ित लोग इन बड़े भाइयों का समर्थन इस उम्मीद में करते रहे कि वे ईमानदारी से सत्ता और विशेषाधिकार उनसे भी साझा करेंगे।

अन्य दमित जातियों के साथ सत्ता और विशेषाधिकार साझा करने के बजाय, बड़े भाइयों ने सत्ता हासिल करने के लिए शोषक-जातियों (उच्च जातियों) के साथ सहयोग किया, उनके साथ सत्ता साझा की। उन्हें इस बात का बहुत डर था कि यदि अन्य दबी हुई जातियों को सत्ता के बंटवारे और विशेषाधिकारों से सशक्त बनाया गया, तो वे एक दिन बड़े भाइयों से आगे निकल जाएंगे। इस प्रकार के भय अपरिपक्वता, समाजवाद की समझ की कमी, दीर्घकालिक दृष्टि की कमी, ईमानदारी की कमी और व्यक्तियों और समाजों के भीतर सहज आंतरिक आत्म-नेतृत्व के उभार की कमी से उत्पन्न होते हैं।

अखिलेश यादव

यह उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव के शासन का दौर था, जब भाजपा ने व्यापक स्तर पर देश में और उत्तर प्रदेश में नरेंद्र मोदी के रूप में अपना बड़ा हिंदू ट्रम्प कार्ड चलना शुरू किया था। हिंदू कार्ड के अतिरिक्त, भाजपा चुनावी रणनीति के तहत सत्ता साझा करने की बात करके उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी व बहुजन समाज पार्टी के जातिगत समर्पित जातियों से इतर अन्य शोषित जातियों में घुसपैठ प्रारंभ कर ही चुकी थी।

अखिलेश को सत्ता किसी दीर्घकालिक संघर्ष के माध्यम से नहीं मिली थी, इसलिए उनके पास अन्य दमित जातियों के साथ बिना किसी दिखावे के वास्तविक बंटवारा करते हुए उन्हें अपने साथ रखने का कौशल नहीं था। उन्होंने सत्ता का केंद्र भाजपा के हाथों गंवा दिया, लेकिन आत्मनिरीक्षण करने के बजाय, उन्होंने अनजान जनता और भाजपा के अनैतिक व्यवहार को दोष देना शुरू कर दिया। अखिलेश की योजनाओं से ऐसा लगता है कि वह सत्ता पाने के लिए व्याकुल हैं, कोई भी शार्टकट चलने को तत्पर रहते हैं बशर्ते यह दिखे कि सत्ता प्राप्त हो सकती है। वह सत्ता के बिना सामाजिक राजनैतिक संघर्ष कर पाने में असमर्थ प्रतीत होते हैं, इस संदर्भ में दृष्टि भी नहीं रखते हैं।

एक के बाद एक चुनावों से ठीक पहले, उन्होंने व्यापक स्तर पर कार्यकर्ताओं व समर्थकों के साथ संवाद किए बिना, पारस्परिक सहमति विकसित किए बिना, अनुयायियों को मानसिक रूप से तैयार किए बिना — कांग्रेस (INC) फिर बहुजन समाज पार्टी (BSP) के साथ गठबंधन किए। चुनावी लड़ाइयों में हार के तुरंत बाद आरोप-प्रत्यारोप गढ़ते हुए गठबंधन तोड़ दिए गए थे। दोनों बार गठजोड़ केवल सत्ता पाने की रणनीति के तहत किए गए थे, न कि गंभीर, दीर्घकालिक या सामाजिक-न्याय के प्रति प्रतिबद्धता वाले कारणों से। वोट प्राप्ति के लिए इस तरह की तात्कालिक रणनीतियों को इनके अनुयायियों द्वारा सोशल-इंजीनियरिंग कहा जाता है, लेकिन यह वोट-इंजीनियरिंग है न कि सोशल-इंजीनियरिंग या सामाजिक न्याय या समाजवाद।

हालांकि सपा और बसपा को अन्योन्याश्रित होना चाहिए था, लेकिन वे मुख्य प्रतिद्वंद्वी रहे। मायावती ने भाजपा के समर्थन से सरकारें बनाईं। दबे-कुचले जाति-समूह, जो कांशीराम के कारण बसपा के साथ थे। उन्होंने समाजवादी पार्टी के साथ प्रतिद्वंतता तथा भाजपा के साथ झुकाव इत्यादि अवचेतन कारणों से सपा के साथ नहीं बल्कि भाजपा के साथ गठबंधन किया। हालाँकि, जब यह स्पष्ट हो गया कि भाजपा का एजेंडा ईमानदारी से सत्ता साझा करना नहीं है, तो वे समाजवादी पार्टी में जाने के लिए तैयार हैं। अगर अखिलेश यादव को सरकार बनाने के लिए पर्याप्त सीटें नहीं भी मिलती हैं, तो भी उन्हें ईमानदारी से सत्ता के उचित बंटवारे के साथ दीर्घकालिक गठबंधन बनाने का अवसर नहीं खोना चाहिए। इस तरह, अखिलेश यादव मायावती के मूल वोट-बैंक में भी घुस सकते हैं, क्योंकि वे अखिलेश को अपने भरोसेमंद विकल्प के रूप में और अपने स्वयं के एक बड़े सामाजिक परिवार के हिस्से के रूप में देखते हैं। अखिलेश यादव बहुत भाग्यशाली हैं कि उन्हें लंबी अवधि के एजेंडे के साथ ईमानदारी के साथ आगे बढ़ने के ये महान अवसर मिले हैं। लेकिन, अगर वह इसे केवल अधिक सीटें और सत्ता हासिल करने के अवसर के रूप में देखते हैं तो शायद यह आखिरी बार होगा जब उन पर भरोसा किया जाएगा।

अखिलेश यादव के लिए सबसे बड़ा संकल्प समाजवादी पार्टी से यादव प्रधान राजनीतिक दल का टैग हटाना होना चाहिए। सच्चे नेतृत्व का अर्थ है सभी दबे हुए जाति समूहों की सेवा करना, न कि केवल अपने ही। अगर उनके पास इसे देखने और समझने की दूरदर्शिता और परिपक्वता है तो वह सभी के लिए एक मजबूत नेता के रूप में उभर सकते हैं और लंबे समय के लिए बाकियों से आगे निकल सकते हैं।

बहुजन समाज पार्टी, बसपा

कांशी राम

कांशीराम दूरदर्शी और दबे-कुचले जाति समूहों के सशक्तिकरण के लिए प्रतिबद्ध सामाजिक-राजनैतिक चिंतक थे। सामाजिक न्याय को समझने वाले लोगों की तलाश में उन्होंने पूरे भारत की यात्रा की। उन्होंने विभिन्न संगठन बनाए। इन संगठनों के माध्यम से उन्होंने विभिन्न लक्ष्यों की दिशा में काम किया।

  • अखिल भारतीय पिछड़ा वर्ग (एससी, एसटी, ओबीसी) और अल्पसंख्यक समुदाय कर्मचारी संघ उर्फ पिछड़ा और अल्पसंख्यक समुदाय कर्मचारी संघ, बामसेफ, 1978 में।

  • दलित शोषित समाज संघर्ष समिति, DS-4 या DSSSS, 1981 में।

  • बहुजन समाज पार्टी, बसपा, 1984 में।

कांशीराम ने समाज के विभिन्न दमित वर्गों के साथ बहुजन समाज पार्टी, बसपा की स्थापना की। यह सत्ता और विशेषाधिकार साझा करने के उनके दर्शन के अनुरूप था। सामाजिक न्याय प्राप्त करने के लिए समाज के दबे-कुचले वर्गों को एक साथ आना होगा। विभिन्न वर्गों के उनके कई सहयोगियों ने कड़ी मेहनत करके बसपा को सशक्त बनाने में योगदान दिया। इस वजह से मायावती कई बार उत्तर प्रदेश सरकार की मुखिया रही हैं।

मायावती

चाहे यह कांशीराम की विचारधारा में गलती हो, या मायावती ने विचारधारा को गलत समझा हो, लेकिन मायावती ने ऐसी गलत व्याख्या की कि सत्ता प्राप्ति ही सामाजिक न्याय है। जबकि, राजनीतिक शक्ति सामाजिक न्याय की ओर बढ़ने में मदद करने के लिए सत्ता केवल एक उपकरण है, लक्ष्य नहीं। जैसे-जैसे लोग जागरूक होते जा रहे हैं, हर पार्टी पर यह दिखाने का दबाव होता जा रहा है कि कल्याणकारी कार्य हो रहे हैं। कुछ थोड़े से व चलताऊ कल्याणकारी कार्य करने का यह मतलब यह नहीं हो जाता कि आप सामाजिक न्याय की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं या आपको सामाजिक न्याय की समझ है।

एक सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन की स्थापना के लिए कांशीराम समाज के विभिन्न तबकों के सामाजिक कार्यकर्ताओं को जोड़ने तथा संवर्धन के लिए आजीवन प्रतिबद्ध रहे। जबकि मायावती ने जी-हुज़ूरी करने वालों को प्राथमिकता दी, और उन्होंने पारस्परिक लोकतांत्रिक विश्वास व संवर्धन को हतोत्साहित किया। जाहिर है कि जिन दमित जातियों ने सदियों तक दमन का सामना किया है उन्हें अपने बीच से ही किसी एक को सरकार  का मुखिया बनते देखकर ख़ुशी हुई, हालांकि उन्होंने अपने जीवन में बहुत कम बदलाव या कोई बदलाव नहीं देखा। कठिनाइयों के बावजूद, वे इस उम्मीद में बने रहे कि एक दिन वे एक समृद्ध जीवन व्यतीत करेंगे।

अब तक, बसपा को पूरे भारत में एक मजबूत राष्ट्रीय पार्टी के रूप में विकसित हो जाना चाहिए था, और उसे अपना प्रसार करते हुए भारत के प्रधानमंत्री पद का दावा करने की स्थिति में पहुंच जाना चाहिए था। लेकिन तानाशाही व अहंकारी प्रवृत्तियों जैसे कि नेतृत्व की दूसरी, तीसरी और चौथी पंक्ति का गठन न करना, बिना सहमति के निर्णय लेना, दमित समूहों को सशक्त बनाने के लिए ईमानदार और दीर्घकालिक प्रयास करने की रुचि, समझ व प्रतिबद्धता का नहीं होना, लेकिन सत्ता प्राप्ति के लिए शोषक-जातियों (उच्च जातियों) के साथ सहयोग करना। सत्ता प्राप्त करने के लिए कुछ भी करना (इसे समर्थकों ने सोशल इंजीनियरिंग के रूप में प्रायोजित करते आए हैं) इत्यादि के कारण बसपा का पतन होता चला गया।

शोषक-जातियां (उच्च जातियां) अपनी सत्ता को मजबूत करने के लिए सपा और बसपा का इस्तेमाल करती रहीं और अंततः भाजपा में लौट गईं। मायावती के प्रति दमित जातियों का जो भाग उनकी अपनी जाति का होने के कारण विशेष रूप से समर्पित है, यह समर्पित वोट-बैंक केवल अपने बलबूते सरकार बना पाने के लिए सक्षम नहीं है। इससे इतर कि शोषक-जातियां (उच्च जातियां) जिन्होंने सदियों से शोषित जातियों का दमन किया है, वे भाजपा को छोड़ने के बारे में सोचें, जबकि भाजपा उनका अपना घर है और अब मजबूत हो चुकी है।

मायावती ने कभी भी ईमानदारी से, प्रतिबद्धता के साथ, समर्पण के साथ, विचारशीलता के साथ वृहद रूप से उत्पीड़ित समूहों के साथ सत्ता साझा करते हुए या करने के लिए या दीर्घकालिक योजना प्रतिबद्धता के साथ पारस्परिक विश्वास विकसित करते हुए जोड़ने का ईमानदार व ठोस प्रयास नहीं किया, जबकि कांशीराम के इन्हीं दिशा व दृष्टिकोण वाली विचारधारा के कारण शोषित जातियों के समाज के अनेक समूह बसपा के साथ जुड़े थे। अगर मायावती अपनी गलतियों से नहीं सीखीं तो एक दिन उनका समर्पित वोट-बैंक भी उनसे दूर होने लगेगा। 

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, INC (कांग्रेस)

प्रियंका और राहुल गांधी की जोड़ी की विचारशीलता एवं दृढ़ता

उत्तर प्रदेश में, कांग्रेस तीन दशकों से अधिक समय से हाशिए पर है। चूँकि कांग्रेस स्वतंत्रता के बाद से लगभग लगातार सत्ता में रही है इसलिए सत्ता के अहंकार ने कांग्रेस और उसके नेताओं को आम लोगों से दूर कर दिया, धीरे-धीरे स्वैच्छिक संगठन सेवा दल को भी नष्ट कर दिया। अंत में यह ताबूत में आखिरी कील जैसा था। धरातल पर कांग्रेस के पास कोई मजबूत संगठन नहीं है। सत्ता के अहंकार और कांग्रेस के ताकतवर नेताओं की जमीनी कार्यकर्ताओं को मौका दिए बिना सत्ता से चिपके रहने की प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप, कांग्रेस को बहुत नुकसान हुआ। उत्तर प्रदेश में, लोग अब कांग्रेस को विकल्प के रूप में नहीं देखते हैं और उन्होंने कांग्रेस को तीन दशकों से अधिक समय तक सत्ता से बाहर रखा है।

फिर भी, पिछले कुछ वर्षों से, कांग्रेस ने अपने चरित्र को बदलने के लिए और एक वास्तविक संगठन के तौर पर खुद को स्थापित करने के लिए ठोस प्रयास किया है। जमीन पर लोगों तक पहुंचने की कोशिश की है। लेकिन कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी समस्या आम लोगों के मन में विपक्षी पार्टियों द्वारा प्रायोजित व स्थापित की गई यह धारणा है कि कांग्रेस भारत की सभी समस्याओं के लिए जिम्मेदार है। इसके पीछे तर्क केवल यह रहता है कि यही पार्टी आजादी के बाद से दशकों तक सत्ता में रही, और इसके पास देश एवं समाज दोनों को आकार देने के अवसर थे।

जबकि जाति व्यवस्था के कारण भारतीय समाज के लोगों व समाजों की कंडीशनिंग व ताना-बाना ऐसा रहा कि उससे बाहर निकल पाना आज तक संभव नहीं है, इसके अतिरिक्त कई राजनैतिक समूहों ने सत्ता प्राप्ति के लक्ष्य के लिए समाज व लोगों के विकास व उन्नति की बजाय धर्मांधता व जातीयता को और अधिक बढ़ावा दिया, इतना बढ़ावा दिया कि भयंकर नफरत की स्थिति में लाकर खड़ा करने से भी हिचके, ऐसा करने को वे अपनी दीर्घकालिक रणनीति मानते आए हैं।

हालांकि कांग्रेस बदल रही है लेकिन पुराने तरीकों से उबरना बहुत मुश्किल है, खासकर तब जब अन्य पार्टियां अपनी भूलों के लिए भी हर चीज के लिए कांग्रेस को दोषी ठहराती हैं। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ईमानदारी से कांग्रेस को पुनर्जीवित करने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसी कई लड़ाइयाँ हैं जो उन्हें लड़नी हैं, जिसमें उनकी अपनी पार्टी के भीतर की जोंकें, पार्टी के लिए लोगों का अविश्वास और अन्य कई समस्याएं शामिल हैं। कांग्रेस तीन दशकों से अधिक समय से सत्ता में नहीं है, लेकिन हर चीज के लिए उसे ही दोषी ठहराया जाता है।

ऐसा लगता है कि ये दोनों कांग्रेस द्वारा की गई गलतियों को दूर करना चाहते हैं और देश और लोगों के लिए धैर्यपूर्वक अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करना चाहते हैं। दोनों को नए विचारों के साथ बिना किसी उम्मीद के, बिना हार माने, लोगों की बेहतरी के लिए प्रयास करते रहना होगा। दोनों की विचारशीलता और दृढ़ता कांग्रेस को फीनिक्स की तरह राख से ऊपर उठा सकती है।

लड़की हूँ लड़ सकती हूँ

शायद, बलात्कार, बलात्कार पीड़ितों के प्रति समाज की असंवेदनशीलता और दमनकारी पितृसत्तात्मक मानसिकता के जवाब में, प्रियंका गांधी ने "लड़की हूं लड़ सकती हूं" के नारे के साथ एक सामाजिक आंदोलन शुरू किया।

हो सकता है कि यह आंदोलन चुनावों में राजनीतिक परिणाम न लाए, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह आंदोलन आम लोगों के साथ संबंध मजबूत करेगा और आधी आबादी को सशक्त बनाने व जागरूक करने की ओर सक्रिय भागीदारी की ओर गति करेगा। भले ही इस आंदोलन का चुनावों पर कोई असर पड़ता न दिख रहा हो या न भी पड़े, लेकिन फिर भी हर निर्वाचन क्षेत्र में कुछ वोट प्रतिशत का इधर-उधर होना कई समीकरणों को बदल सकता है। यह एक ऐसा आंदोलन है जो लोगों को रचनात्मक और सहभागी राजनीति से जोड़ता है। रचनात्मक राजनीति की नई परिभाषाएं गढ़ता है।

Table - 01

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022

दुनिया भर में मतदान प्रणाली में कई सुधार हुए हैं, लेकिन भारत की वर्तमान मतदान प्रणाली एक सदी से भी अधिक पुरानी है। एक सदी से भी पहले जिन देशों ने इस मतदान प्रणाली की शुरुआत की थी वे इस प्रणाली में गंभीर कमियों के सामने आने के कारण कुछ समय बाद ही बेहतर जन-प्रतिनिधित्व के लिए मतों व जन-सहमति इत्यादि का बेहतर आकलन कर सकने वाली प्रणालियों का आविष्कार करते हुए आगे बढ़ चुके थे।

जिस प्रकार की मतदान प्रणाली भारत में है उसमें जन-प्रतिनिधित्व उस क्षेत्र के अधिसंख्य लोगों के प्रतिनिधित्व को रिप्रजेंट करता ही हो ऐसा कतई जरूरी नहीं, वरन् अधिकतर क्षेत्रों में क्षेत्र के आधे से बहुत कम लोगों की ही सहमति को सभी की सहमति मानकर जन-प्रतिनिधित्व तय कर लिया जाता है। यही कारण है कि भारत में यह जरूरी नहीं है कि अधिक वोट प्रतिशत पा लेने पर जीती गयी सीटों की संख्या भी अधिक हो, बल्कि अनेक ऐसे उदाहरण भी हैं, जब वोट प्रतिशत में वृद्धि के बावजूद जीती गई सीटों की संख्या में भारी कमी हुई। यहां तक कि नगण्य प्रतिशत वोटों के ऊपर-नीचे होने मात्र से ही सीटों की संख्या में अभूतपूर्व बदलाव आ सकता है।

2007 में समाजवादी पार्टी (सपा) का मत-प्रतिशत +0.06% बढ़ा लेकिन पिछले चुनावों की तुलना में —46 सीटों का नुकसान हुआ था। जबकि 2012 में वोटों में केवल +3.72% की वृद्धि हुई लेकिन 2007 की तुलना में पार्टी को +127 सीटें अधिक मिलीं।

1996 में, बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को +8.52% वोट अधिक मिले, लेकिन सीटों में वृद्धि या कमी नहीं हुई, जबकि 2007 में मत-प्रतिशत में +7.37% की वृद्धि हुई थी और पिछले चुनाव की तुलना में +108 सीटें अधिक मिलीं, और 2012 में मत-प्रतिशत में केवल —4.52% की कमी होने पर —126 सीटों की घटोतरी हो गई।

साल 2017 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को 39.67% वोट प्रतिशत मिला था। 2022 के चुनाव में भाजपा भले ही वोट प्रतिशत में बहुत अधिक कमी न हो, लेकिन वोट प्रतिशत में थोड़ी सी कमी भी भाजपा को 100 सीटों से नीचे खींच कर ला सकती है, या वोट प्रतिशत कम होने के बावजूद भाजपा 2017 की तुलना में अधिक सीटें हासिल कर सकती है।

वर्तमान में ऐसा प्रतीत होता है कि बसपा के कोर-मतदाताओं में से कुछ प्रतिशत मतदाता (जड़ता वाले मतदाताओं को छोड़कर) बसपा को कमजोर विकल्प के रूप में देखते हुए सपा में स्थानांतरित हो सकते हैं। प्रबल संभावना है कि इस बार मुसलमान समाज के मत बसपा और सपा के बीच वोट नहीं बांटेंगे, बल्कि अधिकतर मत सपा को जाएंगे। दमित जाति समूहों की कई छोटी पार्टियां सपा के साथ जुड़ी हुई हैं। इनमें से कुछ दलों ने पिछले चुनाव में भाजपा के साथ गठबंधन किया था। 'लड़की हूँ लड़ सकती हूँ' अभियान, महिलाओं को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लिए वोट डालने को प्रेरित कर सकता है, यह वोट उन महिलाओं से भी आएगा जो भाजपा को वोट देती हैं।

यह इस बात पर निर्भर करेगा कि दमित जातियां (महिलाओं सहित) किस निर्वाचन क्षेत्र में किस पार्टी को वोट देती हैं। दमित जातियों से प्राप्त वोट यह तय करेंगे कि किस पार्टी के पास कितनी सीटें हैं। इस लेख का उद्देश्य यह भविष्यवाणी करना नहीं है कि कौन सी पार्टी कितनी सीटें जीतेगी, बल्कि सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों का विश्लेषण करना है।

Vivek Umrao 'SAMAJIK YAYAVAR'

Rather than take a job for money after graduating from mechanical engineering and working on renewable energy research, he chose to do volunteer work with exploited and marginalized groups in very backward areas rather than working for a salary.

In India, a PhD scholarship from a European university could be a lifetime dream for a student, but he preferred to work with marginalized communities rather than accept a PhD scholarship from a European university.

He walked many thousands of miles covering thousands of villages over a period of time to obtain ground realities and unmanipulated, primary information. Through these intense marches, meetings, and community discussions, he had direct dialogue with more than a million people before he was forty.

In his work, he has been researching, understanding and implementing concepts of social economy, participatory local governance, education, citizen journalism, ground reporting and rural reporting, freedom of expression, bureaucratic accountability, tribal development and village development, relief, rehabilitation and village revival.

His work in India included establishing or co-founding various social organizations, educational and health institutions, cottage industries, marketing systems, and community universities for education, social economy, health, the environment, the social environment, renewable-energy, groundwater, river revitalization, social justice, and sustainability.

About fifteen years ago, he got married to an Australian hydrology-scientist, but stayed in India for more than a decade to work for exploited and marginalized communities. The couple decided before marriage that they will not have a child until their presence in India is required for the ongoing works. Therefore, they waited eleven years to have a baby after their marriage.

Hundreds of thousands of people from marginalized groups in backward areas of India love and regard him, and even consider him a family member. All these achievements and prestige he had achieved were left behind when he became a full-time father to his son and put his life on hold. Before leaving India, he donated everything except some clothes, mobiles, and laptops.

He now lives in Canberra with his son and wife. He contributes to journals and social media that cover social issues in India. He also provides counseling to local activists working for social solutions in India. Additionally, he is involved with some international peace and sustainability groups.

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Through Ground Report India editions, Vivek organized nationwide or semi-national tours to explore the ground realities covering up to 15000 kilometres in each one or two months to establish a constructive ground journalism platform with social accountability.

As a writer, he has written a book in Hindi, “मानसिक, सामाजिक, आर्थिक स्वराज्य की ओर”, about various social issues including community development, water, agriculture, ground works, and conditioning of thought & mind. Several reviews say it covers "What" "Why" "How" practically for the socioeconomic development of India.

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GRI

   

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