कोरी राष्ट्रपति, घांची प्रधानमंत्री…हिन्दुत्ववादियों के सामाजिक न्याय का नया मॉडल और कांग्रेसी-कम्युनिस्टों-समाजवादियों से लेकर ब्राह्मणवादियों तक के समवेत रुदन का समय

रामनाथ कोविंद देश के राष्ट्रपति हो गए हैं। वे अनुसूचित जाति से होने के कारण राष्ट्रपति बनाए गए हैं। जिस देश में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य सर्वोच्च जातियां मानी जाती हों और इन जातियों के बड़ी तादाद में लोगों के भीतर जातिगत श्रेष्ठता का झूठा और अमानवीय अहंकार भरा हो, उस देश में यह एक अच्छी बात है। और सबसे अच्छी बात ये है कि जिस दल और जिस विचारधारा को आज तक अपनी नामसझी के कारण इन ऊंची जातियों के लोग समर्थन देते रहे हैैं, उनकी आंखें खुलने का भी यह समय है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हो या भारतीय जनता पार्टी, भारतीय राजनीति और समाज के भीतर पैदा हुए छोटे-छोटे अदृश्य आंदोलनों ने कुछ एेसे मूल्य और मानदंड स्थापित कर दिए हैं, जो किसी भी धार्मिक और राजनीतिक कट्‌टरता को निचोड़ कर रख देते हैं।

नरेंद्र मोदी को मैं वैचारिक रूप से पहले ही दिन से खारिज करता रहा हूं और वे मेरी पसंद के प्रधानमंत्री नहीं हैं। लेकिन मुझे मेरे देश का लोकतंत्र और लोकतांत्रिक समाज प्रिय है, इसलिए अच्छा लगता है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू के बाद मोदी भारी जन समर्थन हासिल कर देश के प्रधानमंत्री बनने वाले पहले व्यक्ति हैं। पंडित नेहरू के बाद लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, मोरारजी देसाई, वीपी सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे कई प्रधानमंत्री रहे, लेकिन इनमें से हरेक के साथ सहज और नैसर्गिक प्रधानमंत्रित्व का गुण नहीं जुड़ा था। शास्त्री बहुत कमज़ोर प्रधानमंत्री थे और बहुत मज़बूरी में बनाए गए थे। इंदिरा गांधी नेहरू की बेटी होने के कारण प्रधानमंत्री बनी थीं। माेरारजी जनता पार्टी की एक लाचार और अशक्त अभिव्यक्ति थे। वीपी सिंह बहुत शातिराना ढंग से प्रधानमंत्री बने। उन्होंने कांग्रेस की समस्त धूर्तताओं को मात दे दी थी। जिस सफाई से वे पूरे चुनाव अभियान में प्रधानमंत्री नहीं बनने का दावा करते रहे और स्वयं को फ़कीर बताते रहे, उसी सफाई से वे प्रधानमंत्री भी बन गए और चंद्रशेखर इसके विरोध में उतरे। वाजपेयी बहुत शालीन और बड़ी अाबादी की पसंद थे, लेकिन उनके साथ लोकबल नहीं था। यह लोक बल अगर कोई बटोर पाया तो वह नरेंद्र मोदी हैं। यह अलग बात है कि शासन करने की क़ाबिलियत और समाज या देश का सकारात्मक ट्रांस्फोरमेशन कम ही लोगों के बूते की बात होती है। यह तत्व हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री में नहीं दिखता है।

मैं उस समय बड़ी प्रसन्नता का अनुभव करता हूं, जब ब्राह्मणवादी अहंकार के साथ जीने वाले मेरे मित्र अपने साथ के लोगों को तेली-तमोली और न जाने क्या-क्या कहकर गरियाते हैं और उनके घरों में जाने तक को पसंद नहीं करते; लेकिन अपनी फेसबुक पर सारा दिन घांची जाति के नरेंद्र मोदी की तसवीर लगाकर गर्व का अनुभव करते हैं। यही वह शिफ्ट है, जो भारतीय समाज में होना चाहिए था। यह शिफ्ट आना तो चाहिए था गतिशील और प्रगतिशील ताकतों के कारण, लेकिन यह बदलाव आ रहा है एक कूढ़मगज, दकियानूसी और प्रतिगामी सोच को लेकर चलने वाली राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक विचारधारा के कारण। आपको हीरा तो मिल रहा है, लेकिन वह कीचड़ में लिपटा हुआ है। दरअसल समाज को बदलाव चाहिए, बदलाव ला कौन ला रहा है, उसका चेहरा तलाशने की ज़रूरत नहीं है।

भाजपा ने पृथकतावादी पीडीपी से समझौता किया है। उसके साथ सरकार चलाई है। यह ऐसी ही बात है, जैसे कोई पहले तो कुलवधू होने का दावा करे और फिर अचानक से कॉलगर्ल हो जाए। लेकिन नख़रे वही कुलवधू के! जो पार्टी चीन से अपनी मातृभूमि का एक-एक इंच वापस नहीं लेने तक संसद में प्रवेश नहीं करने के संकल्प ले और जब स्वयं के पास शासन आए और चीन आपके विमान को भी मार गए और धौंस भी दिखाए तब भी आप उसके राष्ट्रपति के लिए लाल कालीन बिछाएं, अपने परम पुरुष की प्रतिमाएं उसके यहां से बनवाएं और वह बुलाए तो आप राष्ट्रीय स्वाभिमान पर द्विराष्ट्रीय रिश्तों की परवाह करने लगें तो इससे अच्छा बदलाव और क्या होगा! लेकिन ज्यादा अच्छा ताे तब है जब आप देश की सड़कों पर विनम्र दिखाई दें।

क्या यह हिन्दूवादी और ब्राह्मणवादी पार्टी के भीतर कम कमाल की बात है कि जो लोग अपने चौके-चूल्हे पर जिस जाति के नादान बच्चे तक के चढ़ जाने पर गंगाजल से स्नान करते हैं और गंगाजल से चौका-चूल्हा धोते हैं, उस सड़ी हुई सोच और अमानवीय विचारधारा के लोगों को अपने हृदय में बसाना पड़ता है। मुझे लगता है, यह बदलाव है और बड़ा बदलाव है, जिसे सामाजिक न्याय की राजनीति के दबाव से आना पड़ा है। आप यकीन मानिए, यह बदलाव अभी और विस्तार लेगा और ब्राह्मणवादी वर्चस्व को खत्म करके एक ऐसा हिन्दुत्व खड़ा करेगा, जिसमें 90 प्रतिशत पिछड़ी और दलित जातियों की भूमिका है। संघ आजकल इसी सोशल इंजीनियरिंग पर काम कर रहा है और इसीलिए जल्द से जल्द वह अपने प्रांतों की कमान इस वर्ग के लोगों को सौंप रहा है। यह अनचीन्हा आरक्षण है, जिसकी संघ के लोगों ने भी कभी कल्पना नहीं की होगी।

यह इसलिए भी बड़ा बदलाव है, क्योंकि भारतीय राष्ट्रपति और भारतीय प्रधानमंत्री के दोनों पद आज ऐसी जातियों के दो लोगों के पास हैं, जो आम समाज में बेहद अप्रतिष्ठित और दीनहीन बनाकर रख दी गई हैं। अगर जातिगत प्रतीकों से सामाजिक बदलाव आता है तो भाजपा सामाजिक बदलाव का यह संदेश देने में सफल रही है। कांग्रेस के पास दलित मीराकुमार पहले भी थी और ज़हीन-शहीन प्रतिभावान गोपाल गांधी भी कब से थे, लेकिन कांग्रेस को इनकी याद कभी नहीं आई। उसने विवशता में ये नाम ऐसे समय चुने, जब हार तय थी।

दरअसल जाति आधारित सामाजिक न्याय का जो सिद्धांत कांग्रेसी, कम्युनिस्ट और समाजवादी लेकर आए थे, वह एकदम झूठा साबित हुआ और यह थियरी लोगों को न्याय नहीं दिला पाई। न लोकतंत्र बलशाली हुआ और न बंधुता ही कायम हुई। समता और स्वतंत्रता का तो प्रश्न ही नहीं है, इस मोहिनी सिद्धांत ने गरीब को गरीब नहीं समझा और उसकी जाति पूछना जरूरी समझा।

हमारे देश में जिस समय जातिवादी और धर्मांधतावादी ताकतें मज़बूत हो रही हैं, उस समय अगर सवर्णवाद और ब्राह्मणवाद पर कोई तीखा प्रहार हो रहा है तो वह इसी हिन्दुत्व की राजनीति से होता दिख रहा है।

हिन्दुत्ववाद के ध्वजवाहकों को तो नहीं, लेकिन उसके चुनीदा रणनीतिकारों को अब यह समझ आ गया है कि वे अपना धार्मिक राज्य ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों के बलबूते पर नहीं कर सकते। इसलिए इन जातियों को नींव में दबाकर अब दलित-पिछड़ा वर्ग, जिसकी भारतीय समाज में तादाद 90 प्रतिशत है, उन्हें अग्रणी रखकर ही हिन्दू भारत बनाना संभव है। लेकिन आप सदियों पुरानी इस कहावत को याद रखें कि लोहा लाेहे काे काटता है और ज़हर ही ज़हर को मारता है। इसलिए जो लोग ज़हर उलीच रहे हैं, उसे कंठ में धारण करने वाला कोई शिव तो हमारे आसपास नहीं है, लेकिन इतना तय है कि यह विष जातिवादी और ब्राह्मणवादी सोच के अंगों को तो नीला करके खत्म कर ही देगा।

कोरी जाति के रामनाथ कोविंद के राष्ट्रपति और घांची जाति के नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बन जाने का साफ़ सा अर्थ यह है कि हिन्दुत्ववादी राजनीति के रणनीतिकारों ने भारी शिफ्ट किया है और अब वे जिस राह पर चल पड़े हैं, उसमें कम्युनिस्टों, समाजवादियों और कांग्रेसी लोगों के लिए संभावनाएं बहुत क्षीण पड़ गई हैं। वे अगर कोई क्रांतिकारी फार्मूला या रणनीति लेकर आगे नहीं बढ़ पाए तो इस राजनीतिक युद्ध में उनका पराभव सौ प्रतिशत तय है। राजनीतिक लोगों को यह समझ आ चुका है, लेकिन उनके आसपास मंडरा रहे मीडियाई और विश्वविद्यालयीय बुद्धिजीविता के भ्रम को पाले बैठे लोगों को यह समझ नहीं आया है और वे अपने आकाओं से ज़्यादा हल्ला करते हैं। गवाह चुस्त हैं और मुद्दई सुस्त हैं।

और आप जल्द ही आने वाले चुनावों में बहुत स्पष्टता से देखेंगे कि हिन्दुत्ववादी राजनीति के रणनीतिकार आने वाले समय में ब्राह्मणवाद के अवशेषों को किस तरह धू-धू कर जलाते हैं। जो लोग अब तक आरक्षण की सरकारी नीतियों से परेशान थे और सुबह-शाम उस नीति को गरियाकर भाजपा-आरएसएस का दामन थाम रहे थे, उनके रुदन के दिन बहुत निकट है। हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद भले अभी मुस्लिमों को डरा रहा हो, लेकिन आप देखेंगे कि संघ और भाजपा के ये कोविंद जैसे सजावटी दीए कुछ दिन बाद ब्राह्मणवादियों और सवर्णवादियों को भी डराने लगेंगे; क्योंकि इनके साथ ही अब इन पदों से सदा के लिए कथित ऊंची जातियों के नेताओं की छुट्टी होने वाली है।

यह अलग बात है कि ट्रांस्नेशनलिज़्म, कॉमन मार्केटिज़्म, कांपीटीटिव डेमाक्रेटिक इकोनॉमी और नई टेक्नाेलॉजिकल इंस्पीरेशंस के दबाव किसी भी देश में कट्टरतावादियों, रूढिवादियों और प्रतिगामी शक्तियों को कामयाब नहीं होने देंगे। एक तरह से एक बार अंधेरा गहराएगा और उसमें से एक नई दुनिया का साफ़ और सुंदर चेहरा दिखाई देगा।

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