वाचालता इस युग की प्रमुख प्रवृति बन गई है

Shayak Alok

[themify_hr color=”red”]

मुझे लगता है कि शासन व प्रशासन में बहुत कुछ अप्रत्यक्ष-नीतिक (कूटनीतिक) रखना उचित होता है. मैं इसे लोकशैली के एक वक्तव्य से पुष्टि देता रहा हूँ कि ‘मार कम बपराहट ज्यादा’ का प्रयोग लाभप्रद होता है. इसका आशय यह होता है कि साध्य को अधिक प्रकट बनाए रखना, न कि साधन प्रयोग पर एक दंभ बनाए रखना. मायावती की रैली से लौटते दलित-ईसाई-मजदूर युवक की हत्या मामले में उन्होंने यह हुनर आजमाया. buy zolpidem er 12.5 mg https://www.livermedic.com/ ambient online magazin उन्होंने न केवल अलसुबह परिवार को दबाव में ले मृतक का दाह-संस्कार कर दिया बल्कि उसी रात कई राजपूत युवकों को हिरासत में भी लिया. इससे संतुलनकारी स्थिति बनती है और प्रशासन के पास रचनात्मक स्पेस होता है कि वह बाकी कार्रवाई को नियंत्रण में अंजाम दे सके. अपने क़स्बाई पत्रकारिता दिनों में मैंने लोकल प्रशासन (एसपी-डीएम) को प्रायः इसी नीति से काम करते देखा है. शासन या प्रशासन को खुला पक्षकार नहीं बनना चाहिए. पक्षधरता सियासत का अवगुण है.

मेजर गोगोई के मामले में बेहद आसानी से सेना के अंदर सेना प्रशासन द्वारा यह मैसेज कन्वे किया जा सकता था कि मेजर ने जो किया वह हालात के अनुसार एकदम सही था. यह मैसेज कन्वे करने की आवश्यकता भी नहीं थी यदि सेना जानती ही है कि विपरीत परिस्थितियों में वह प्रायः मनोनुकूल कार्रवाई उपाय अपनाती ही रही है. उत्तरपूर्व से कश्मीर तक सेना पर बलात्कार के आरोप लगते रहे हैं, आंतरिक कार्रवाइयों की बातें भी होती ही रहती हैं, लेकिन क्या पब्लिक डोमेन में ऐसी बातें प्रमुखता से आती हैं कि वास्तविक रूप से किसी सैन्य अधिकारी पर बलात्कार आरोप पर कोई कार्रवाई हुई. तो क्या नीति रही उनकी कि उन्होंने इसे अप्रत्यक्ष-नीतिक बनांये रखा है ताकि न तो सेना का कथित ‘मोरेल’ डाउन हो, न उन्हें पब्लिक आउटरेज से अकेले व सीधे मुक़ाबिल होने को विवश होना पड़े.

किन्तु यूँ मेजर गोगोई को सम्मानित कर सेना प्रशासन पक्षकार बन गई. पहले से असंतुष्ट कश्मीर को एक और खराब मैसेज गया. यदि कश्मीरी भारतीय नागरिक ही हैं तो फिर प्रश्न तो बनता है कि संस्थागत पक्षधरता और नागरिक पक्षधरता के बीच सेना ने किसके प्रति पूर्वग्रह रखा. यह धैल किस्म का लोकतंत्र हुआ यदि सेना सैनिकों व नागरिकों में से सैनिकों को ही बस अपना समझे. यह ऐसा ही है कि एक बार किसी इजरायली मंत्री ने यह कह दिया था कि चयन यदि हमारे बच्चों की मौत और फ़लस्तीनी बच्चों की मौत में से एक का करना हो तो मैं फ़लस्तीनी बच्चों को चुनूँगा.

सफल कूटनीति यह होनी थी कि मेजर गोगोई मामले पर सेना प्रशासन का बयान होता (या किसी बयान की आवश्यकता ही नहीं थी) कि मेजर गोगोई ने एक परिस्थिति में एक निर्णय लिया और उचित प्रतीत होता है, किन्तु इसके समानांतर नागरिक प्रशासन ( हमारी सरकार !) का यह बयान रहता कि सेना अधिकतम संयम बरते कि इस मामले की निष्पक्ष जांच करे. हुआ यह कि सेना ने मेजर को सम्मानित कर दिया और सरकार के लोग ‘जश्ननुमा’ बयान में लग गए.

बीच का कोई रचनात्मक स्पेस मिला ही नहीं, बाँधा गया युवक स्टोन-पेल्टर भी नहीं साबित हुआ, कश्मीरियों का असंतोष इस घटना से बढ़ा होगा वह अलग.

इस उत्सवधर्मी सरकार और ओवरकांफिडेंट सेना को इस बात को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए कि कश्मीर का अंतिम उपचार लोहे के जोर से नहीं बल्कि कश्मीरियों को विश्वास में लेकर ही होना है. हमने सत्तर साल से कश्मीर को सिर्फ लोह के दम से नहीं बचा रखा बल्कि संवादात्मक और संवेदनात्मक उपायों से भी बचा रखा है.

किन्तु हम मोदी युग में हैं. सारे पाठ ही किसी और दिशा को प्रस्तावित हैं. भाषिक व व्यवहारपरक वाचालता इस युग की प्रमुख प्रवृति बन गई है.

 

Tagged . Bookmark the permalink.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *