Nishant Rana
Director and Sub-Editor,
Ground Report India (Hindi)
भारतीय समाज हजारों सालों से यौनिक नैतिकता का पाठ पढ़ाता आया है। भारतीय समाज अलग अलग तरीकों से, धूर्तता से यौनिकता को सुरक्षित करता आया है.
हम यौन शुचिता के नाम पर स्त्री को इतना संस्कारित कर चुके है कभी जौहर के रूप में कभी सती प्रथा के नाम पर स्वयं को जलाती आई है। और यदि कोई शारीरिक पीड़ा के कारण ही सही इस संस्कार से बाहर आना चाहती रही उन्हें हम स्वयं ही आग में झोकते आये है।
यौन शुचिता के नाम पर हमने विधवाओं को भयंकर उत्पीड़न की स्थिति में डाला, यह यौन नैतिकता का ही पाठ था जिसने उन्हें उस स्थिति को स्वीकार करना बनाया। ऐसी स्थिति में भी यदि कोई महिला अपनी शारीरिक जरूरतों के कारण किसी के साथ सम्बन्ध बनाती भी है तब भी वह जो नैतिकता उसके अंदर प्रतिष्ठित है के कारण अपने आप को पाप का भागीदार समझती है, अपनी स्थिति को ठीक समझती है।
बाल विवाह के रूप में हमने यौन शुचिता के माध्यम से ही गुलामी व यौन शोषण थोपा।
घर से बाहर निकलने न देने के नाम पर हमारी यहीं कुंठित मानसिकता को मान सम्मान के नाम पर जीना रहा। कपड़े जो शरीर को सर्दी गर्मी धूल मिट्टी शरीर को कुछ आराम सुरक्षा देने के लिए प्रयोग होने थे उन तक में हमने इतनी सेक्स, लैंगिक नैतिकता घुसेड़ दी कि अमूनन तो कोई स्त्री और कई पुरुष इससे बाहर ही नहीं आ पाते यह मानिये जीवन का शायद कोई हिस्सा हमने ऐसा छोड़ा जहां से मस्तिष्क के बच निकलने की कोई संभावना हो।
हमने अपने ग्रंथों में पूजा पाठ तक में स्त्री को देवी बनाया, उसमें यौन नैतिकता की इतनी गुलामी अपराधबोध भरा की देवी प्रतिष्ठित बातों से अलग जरा भी कुछ कर रही है तो उससे बड़ी पापिन कोई नहीं है।
सामाजिक संस्कारों से अलग कोई स्त्री जरा भी जाये या फिर पुरुष की भी उसमें सहमती रही हो लेकिन जैसे ही वह भोग बंद हो या फिर आपको न मिल कर किसी और को मिल रहा हो तो देवी से तो पाप हुआ ही है आप कुल्टा, रण्डी, चरित्रहीन जैसे तमगे जब मनमर्जी किसी स्त्री पर थोप सकते हो.
गुड टच और बैड टच भी ऊपर की गई चर्चाओं की तरह का ही शारीरिक दैवीयकरण है केवल रैपर अलग है.
हम यौन शिक्षा पर कभी काम नहीं करेंगे, हम बच्चों के साथ कभी इतने मित्रवत नहीं हो पायेंगे कि वह अपनी परेशानियाँ भी हम से खुल कर कह सके लेकिन बच्चे के खुले मस्तिष्क को भय और यौन कुंठाओं के दलदल में जरुर ले जायेंगे. ऊपर से माता-पिता खासकर माताओं का यह तुर्रा कि हमें भी सिखाया गया है हम पर तो कोई फर्क नहीं. जबकि यहीं फर्क उनका जीवन निर्धारित कर चुका होता है खुद के जीवन को नरक बना चुका होता है. लेकिन उस बात को रुककर देखने, स्वीकार करने को तैयार हो तब न. यदि समाज बच्चों और स्त्रियों के लिए असुरक्षात्मक है, बालात्कारी मानसिकता का है तो गुड टच बैड टच से समाज सही दिशा में कैसे चला जायेगा? समाज में तो हत्याएं भी होती है, चोरी, भ्रष्टाचार और तमाम तरह के अपराध होते है बच्चों को इन सब के आधार पर फिर लड़ने मारने की ट्रेनिंग भी देनी चाहिए; चाकू ,पिस्तौल जैसे हथियार भी देने चाहिए, हर जगह कैमरे लगे रहने चाहिए. ऐसा ही बहुत कुछ होना चाहिए ऊपर जो सब बताया गया है इन तर्क के आधार पर तो फिर वैसा होना भी क्या गलत?
समाज असुरक्षित है तो इसे असुरक्षित बनाया किसने है, क्यों बच्चों को इतनी नैतिकताओं में रखने के बावजूद समाज कुंठित है, आपराधिक है. यह बहुत ही गंभीर मसला है कि फिर जैसा समाज हमने बनाया उसी समाज के आपराधिक कारणों को आधार बना कर उन सब कारकों को और मजबूत करते रहें जो इस सब की वजह से ऐसे समाज का निर्माण करते हो जहां कोई भी एक दूसरे पर विश्वास न करता हो, भय के माहौल में जीते हो, अपराध बोध, असुरक्षा और यौन कुंठाओं को जीते हो.
इन सबके पीछे केवल और केवल एक ही बात निकल कर सामने आती है कि पुरुष या माता-पिता की संपत्ति के रूप में स्त्री/बच्चों को प्रयोजित/प्रतिष्ठित किया जाता रहें. स्त्री अपने आप को भोग्या माने, उत्पाद माने, उसका हर एक क्रिया कलाप निर्णय पुरुष के नजरिये के आधार पर हो. हमारे यहाँ पुरूषों को यह बैठा कर नहीं सीखाया जाता है कि तुम्हें स्त्री को नियंत्रित करना है चाहें वह तुम्हारी बहन हो, माता हो, पत्नी हो या बेटी हो. जब हमारे ईश्वर, देवता भी स्त्रियों का शोषण करने के बाद, बालात्कार करने के बाद पूजनीय है, समाज और हमारें दैवीय ग्रन्थों में यौन शुचिता प्रतिष्ठित है, समाज में किसी भी प्रकार का खुलापन है ही नहीं, रत्ती भर भी जगह मस्तिष्क के विकास की छोड़ी ही नहीं जाती तब पुरुष को अलग से कुछ सिखाने की जरूरत ही नहीं रह जाती है, स्वत: ही भोगने वाली, नियंत्रित करने वाली सामंती मानसिकता अपने लिए जगह बनाती चली जाती है.
चलते-चलते :-
यौन शुचिता का जाल इतना गहरा हैं कि बहुत सी महिलाएं स्त्रीवाद के नाम पर पुरूषों से नफ़रत करती है और उनके जीवन जीने का आधार एक बार फिर से पुरुष का नजरिया ही हो जाता है.
हमारे समाज में आपसी संबंधो में प्रेम, मैत्री, सहअस्तित्व, सहजता, स्वतन्त्रता, ज़िम्मेदारी के पनपने की इतनी बारीकी से भ्रूण हत्या की जाती है कि एक तरफ पुरुष स्त्री को केवल यौन रूप से लगातार भोगते रहने की मानसिकता से ऊपर नहीं उठ पाता है और स्त्री अपनी यौन शुचिता से ऊपर नहीं उठ पाती, अपने सम्बन्धों को खुल कर नहीं जी पाती. ऐसा ही समाज में स्त्री पुरुष संबंधो में ईमानदार न हो कर धूर्तता, दिखावे को बहुत बारीकी से प्रेम के नाम पर जीता है कुछ समय बाद एक दूसरे का सर फोड़ता है और इसी प्रकार के संबंधो की चकरघिन्नी चलाये रखता है. इस तरह की मानसिकता में ही किसी समाज में शादी के नाम पर चलने वाली वेश्यावृति, व्यापार, सत्ता लंबे समय तक टिके रह सकते है. एक स्वतंत्र, जिम्मेदार, सामूहिक रूप से अपने कर्तव्यों के निर्वहन करने वाले समाज/संबंधो के बनने का आधार कभी डर नहीं हो सकता. हम जितना अपने भोग के लिए डरेंगे उतना ही तंत्र मजबूत होगा, उतने ही हम झूठे मनोरंजन, नफ़रत में और डूबेंगे और अपने अधिकार, स्वतंत्रता, निर्वहन और भी अधिक मुश्किल हालातों में डालते रहेंगे.
अपवाद हर जगह है मनुष्य में सोच समझ जागने, किसी भी प्रकार की विकृत मानसिकता से निकलने की सम्भावना भी हर जगह है, यदि हम वास्तव में अपने बच्चों की सुरक्षा, स्वस्थ समाज के लिए प्रतिबद्ध है तब हमें अपने डर, नफ़रत से बाहर आना ही होगा, बहुत कुछ सामजिक रूप से झेलना ही होगा बशर्ते यह सब बिना ढोंग के हो, हम जो है उसे प्रतिष्ठित करने के बजाय उसे ईमानदारी से स्वीकार कर उसका अवलोकन करें, और कोई विकल्प है भी नहीं.
बाकी यदि किसी को भी लिखा पढने में असुविधा या चोट लगी हो तो क्षमाप्रार्थी हूँ.