Vivek Umrao "सामाजिक यायावर"
कैनबरा, आस्ट्रेलिया
आमुख
अनुपम मिश्र जी से मेरी पहली मुलाकात लगभग पंद्रह वर्ष पूर्व हुई थी। बहुत विनम्र व्यक्तित्व थे। पहली मुलाकात के बाद हम लोगों की सैकड़ों मुलाकातें हुईं, बहुत बार तो हम लोग दिन-दिन भर साथ रहे, लंबी चर्चाएं होतीं थीं। बहुत बार ऐसा हुआ कि वे गांधी शांति प्रतिष्ठान के अपने कार्यालय में अपनी मेज पर लिखापढ़ी वाला कामकाज निपटा रहे होते थे और मैं चुपचाप उनके साथ बैठा हुआ, उनको देश विदेश से आए दस्तावेजों का अध्ययन कर रहा होता था।
अनुपम जी की दो पुस्तकें बहुत लोकप्रिय हुईं, “राजस्थान की रजत बूंदे” व “आज भी खरे हैं तालाब”। जब भी मेरे पास उनकी दी हुई प्रतियां खतम हो जातीं थीं, उपलब्ध होने पर वे मुझे और प्रतियां दे देते थे। मैंने उनकी इन दो पुस्तकों की प्रतियां बहुत लोगों को बांटीं। इन पुस्तकों का लेखन व शिल्प बहुत ही अधिक सुरुचिपूर्ण व सादगीपूर्ण था। इन पुस्तकों से ही अनुपम जी की सौन्दर्यबोध की गहरी समझ का पता चल जाता था।
अनुपम जी की इच्छा के कारण ही मैंने स्वीडन के सहयोग से राजेंद्र सिंह द्वारा स्थापित की गई “तरुण जल विद्यापीठ” में भूमिका निभाने का कार्य किया था। अनुपम जी व उनकी पत्नी दिल्ली से तरुण भारत संघ तक मुझे छोड़ने भी गए थे।
तरुण जल विद्यापीठ में पहुंचने के कुछ महीने बाद “जल-बिरादरी” के राष्ट्रीय अधिवेशन में मुझे व अरुण तिवारी जी को संयुक्त-राष्ट्रीय-संयोजक का उत्तरदायित्व भी दिया गया था।
तरुण जल विद्यापीठ व जलबिरादरी के बाद मैं भारत के कई राज्यों में ऐसे प्रयासों व कार्यों से सक्रिय रूप से संबद्ध रहा जिनके कारण सैकड़ों गावों में पानी का जलस्तर बढ़ा, दशकों से सूखी पड़ी मर चुकी नदियां भी पुनर्जीवित हुईं। सैकड़ों तालाबों को पुनर्जीवित किया गया। इन प्रयासों व कार्यों के अतिरिक्त एक लेखक, पत्रकार व संपादक के रूप में भी कुछ ऐसे क्षेत्रों में भी गया जहां स्थानीय लोगों ने पानी की समस्याओं को अपने बूते हल किया।
पानी से जुड़े वैश्विक संस्थानों के अंतर्राष्ट्रीय दस्तावेजों के निर्माण में मैंने सहयोग भी दिया। दस्तावेजों में मुझे विशेष रूप से सम्मान के साथ धन्यवाद ज्ञापित भी किया गया। दुनिया की नामचीन विश्वविद्यालयों के जल-विज्ञान विभागों के प्रोफेसरों व शोधार्थियों से भी समय-समय पर मेरी लंबी चर्चाएं होती रही हैं।
मेरी जीवनसाथी नदियों की विशेषज्ञ हैं, जल-विज्ञान से स्नातक करने के बाद उन्होंने नदियों के व्यवहार व पुनर्जीवन पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पीएचडी की। उनकी पीएचडी-थीसिस का मूल्यांकन दुनिया के कई देशों के प्रकांड जल-विज्ञानी लोगों ने किया। कई योरपीय देशों की विख्यात विश्वविद्यालयों द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में इनके द्वारा लिखे गए अध्याय जोड़े गए हैं। आजकल ऑस्ट्रेलिया सरकार के नदियों वाले राष्ट्रीय विभाग में अच्छे पद पर कार्यरत हैं। ऑस्ट्रेलिया वर्षाजल-प्रबंधन व भूजल प्रबंधन के मामलों में दुनिया के सबसे अग्रणी देशों में है। जीवनसाथी से भी मुझे जल के संदर्भ में बहुत कुछ जानने समझने का अवसर मिलता रहता है।
पानी के मिथक बनाम आर्गनाइज्ड सामाजिक अपराध
जमीनी धरातल पर काम करने, राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अध्ययन इत्यादि से मैं एक तथ्य बहुत अच्छी तरह समझ पाया कि भारतीय समाज ने पानी के संदर्भ में बहुत ही अधिक गलतियां की हैं, गलतियों की श्रंखला। इसके अतिरिक्त भी बहुत बड़ा मुद्दा यहा है कि पानी के संदर्भ में भारतीय समाज के लोगों की सोच व मानसिकता अनेक मिथकों द्वारा नियंत्रित होती है। पानी से जुड़े कई भयंकर मिथकों के कारण जाने-अनजाने भारतीय समाज के लोगों से लगातार बढ़ते हुए क्रम में पानी के संदर्भ में सामाजिक अपराध होते जा रहे हैं। यह लेख ऐसे ही कुछ मिथकों पर चर्चा करने का प्रयास है।
भूजल पेयजल होता है, ताजा होता है — मिथक
भूजल का मतलब होता है, धरती के अंदर का पानी। गांव हो या शहर, पढ़ा-लिखा हो या अनपढ़ भारतीय समाज में अपवाद छोड़कर सभी का यही मानना है कि भूजल पेयजल होता है, सबसे अधिक शुद्ध होता है। इससे भी बड़ी बात यह कि पानी जितना गहराई से निकाला जाता है, उसको उतना ही शुद्ध माना जाता है। जबकि होता इसके विपरीत है। धरती के अंदर के पानी को ताजा भी माना जाता है। जबकि यदि धरती के अंदर का पानी ताजा हुआ तो फिर गैर-ताजा पानी क्या हुआ।
दरअसल भूजल को पेयजल व ताजा मानने के पीछे तीन प्रमुख कारण हैं। एक — पानी का रंग, दो — पानी का तापमान, तीन — आलस्य/कामचोरी।
लोगों ने तालाब, बरसाती नाले, नदियां भ्रष्ट कर दीं या नष्ट कर दीं या प्रदूषित कर दीं। इसलिए इनका पानी गंदा दीखता है। भूजल साफ दीखता है। लीजिए भूजल पेयजल सिद्ध हो गया, इतिश्री।
भूजल सर्दी में गर्म व गर्मी में ठंडा महसूस होता है। भूजल का तापमान पूरे वर्ष लगभग कमोवेश उतना ही रहता है, लेकिन बाहरी वातावरण के तापमान के कारण हमें गर्म व ठंडा महसूस होता है, इसलिए हमारी स्वादेंद्रियों को लगता है कि पानी ताजा है। लीजिए भूजल ताजा-पानी सिद्ध हो गया, इतिश्री।
जब मशीन लगाकर बोर खोदकर घर के भीतर पानी का स्रोत बनाया जा सकता है तो तालाब बनाने, वर्षा-जल संग्रहण करने, तालाब से घरों तक पानी की आपूर्ति व्यवस्था करने जैसी व्यवस्थाओं को करने की क्या जरूरत है। आलस्य/कामचोरी ने भूजल को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध कर दिया, इतिश्री।
भूजल अनन्त है — मिथक
पौराणिक कथाओं में पाताललोक व धरती का शेषनाग के फन पर रखे होने जैसी काल्पनिक मान्यताओं इत्यादि के कारण परंपरा में स्थापित होकर भारतीय समाज की संस्कृति की सोच का अभिन्न भाग बन चुका है कि धरती के अंदर का पानी अनन्त है। चूंकि धरती के भीतर का पानी अनंत है इसलिए कितना भी पानी निकाला जा सकता है।
यही कारण है कि जब जलस्तर नीचे जाता है तो लोग पानी के लिए चिंतित नहीं होते, वे चिंतित होते हैं कि उनको और गहरा बोर करना पड़ेगा। पानी के संदर्भ में विज्ञान व तकनीक का प्रयोग और गहरे जाकर पानी निकालने की सुविधा तक सीमित है। भूजल को पेयजल मानने का मिथक जब भूजल को अनन्त मानने वाले मिथक के साथ जुड़ जाता है तो स्थिति बहुत ही अधिक अनियंत्रित व भयावह हो जाती है। इन दो मिथकों का जुड़ना भी पानी के संदर्भ में भारतीय समाज की सबसे बड़ी त्रासदी है।
पानी बचाओ नारा — मिथक
पानी जीवन के लिए अतिआवश्यक तत्व है। केवल मानव शरीर के जीवित रहने के लिए ही नहीं, शाकाहारी व मांसाहारी सभी तरह के भोजन उत्पादन, कपड़ा उत्पादन, कृषि उत्पादन, औद्योगिक उत्पादन, जंगल, जीव-जंतु, पर्यावरण इत्यादि-इत्यादि के लिए भी पानी मूलभूत तत्व है। कितना भी शोर मचाया लिया जाए, व्यवहारिकता यह है कि पानी की खपत कम नहीं की जा सकती है। चूंकि पानी की खपत कम नहीं की जा सकती है तो पानी को बचाया भी नहीं जा सकता है, संभव ही नहीं।
पानी बचाने के नाम पर यदि कुछ किया जा सकता है तो वह केवल यह कि पानी का दुरुपयोग कम किया जा सकता है। पानी के दुरुपयोग के संदर्भ में यदि गहराई से तुलनात्मक विश्लेषण किया जाए तो भारत के 70% से अधिक लोग पानी का दुरुपयोग करना तो दूर, सामान्य आवश्यकता के लिए पानी की उपलब्धता तक नहीं रखते हैं, दुरुपयोग कर पाने की संभावना तक नहीं रखते हैं। लेकिन चूंकि हम भारतीय समाज के लोग सामंती मानसिकता से बेहद ग्रस्त हैं, इसलिए हर समस्या की जड़ जो लोग हाशिए पर हैं, उन्हीं को मानने की बीमार, कुंठित व बर्बर मानसिकता में रहते हैं।
पानी का स्वतंत्र-अस्तित्व है — मिथक
भूजल पेयजल होता है, भूजल अनन्त है, पानी बचाया जा सकता है, इत्यादि-इत्यादि मिथकों के कारण यह मानसिकता स्वतः बन जाती है कि पानी का स्वतंत्र अस्तित्व होता है। इसीलिए पानी, पेड़, जंगल, पर्यावरण, तालाब, बरसाती नालों, नदियों, समुद्र इत्यादि-इत्यादि के अंतःसंबंध क्या हैं, अंतःनिर्भरताएं क्या हैं, इत्यादि-इत्यादि की समझ भी नहीं विकसित हो पाती है। पानी को स्वतंत्र अस्तित्व मानने का मिथक भी बहुत ही अधिक भयावह मिथक है।
भारतीय समाज की पानी की महान-परंपराएं — मिथक
भारत में ऐसे बहुत लेखक हैं जो शताब्दियों पहले भारत में होने वाले वर्षा जल प्रबंधन को बहुत गौरव के साथ आदर्श के रूप में प्रस्तुत करते हैं, मानों दुनिया के दूसरे समाज मूर्ख थे और केवल भारतीय समाज ही ऐसा कर रहा था। इनमें से अपवाद छोड़कर अधिकतर लोगों ने पानी के लिए कोई ठोस काम जमीन पर नहीं किया होता, फिर भी अपने आपको पानी विशेषज्ञ मानते हैं। जबकि इनमें से अधिकतर लोगों की पानी के संदर्भ में ठोस व व्यापक समझ नहीं होती, हवाबाजी से समझ विकसित हो भी नहीं सकती, संभव ही नहीं।
इस संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण बात यह भी है कि केवल भारतीय समाज ही नहीं, अपितु दुनिया के हर समाज ने पानी के स्रोतों से स्वयं को जोड़ कर रखा, उस जमाने में और कोई रास्ता ही नहीं था, विकल्प नहीं थे। इसलिए ऐसा बिलकुल भी नहीं है कि भारतीय समाज के अलावा दुनिया के अन्य समाजों ने पानी के संदर्भ में परंपराएं व सामाजिक नियम नहीं बनाए थे। बल्कि दुनिया के अनेक समाजों ने भले ही कितना विकास कर लिया हो, पानी के संदर्भ में परंपराओं व नियमों को अधिक परिष्कृत किया।
यूं लगता है कि भारतीय समाज में पानी के संदर्भ में परंपराएं व सामाजिक नियमों की जड़े गहरी नहीं थीं, जो भी था वह मजबूरी में था। ठोस सामाजिक समझ व योजना के अंतर्गत नहीं था। दुनिया में भारत जैसे समाज अपवाद हैं जिन्होंने निर्दयता के साथ लगभग पूरे देश में पानी के स्रोतों को खतम किया वह भी बिना किसी ठोस कारण। केवल फूहड़ जीवन-शैली व बीमार मानसिकता के कारण, कुओं, तालाबों, बरसाती नालों को पाट दिया। यह सब किया भारतीय समाज के आम लोगों ने। व्यवस्था तंत्रों ने तो बहुत ही अधिक आगे जाकर नदियों को ही खतम करने व पाटने का काम किया।
दरअसल जब सामाजिक परंपराओं व नियमों के साथ समाज के लोग स्वयं को सहजता व परिष्करण के साथ जोड़कर नहीं रख पाते, वरन् इनको मजबूरी मानते हैं। तो ऐसी सामाजिक परंपराओं व नियमों को समय के साथ-साथ तार-तार होने में देर नहीं लगती।
यही कारण है कि भारत में राजस्थान राज्य सहित लगभग सभी समाजों में पानी से जुड़ी परंपराएं तार-तार हुई हैं। राजस्थान चूंकि रेगिस्तानी राज्य था इसलिए वहां विभीषिका बहुत स्पष्ट रूप में लोगों के सामने आना शुरू हो गई तो मजबूरी में लोगों को जल-संरक्षण वाली परंपराओं की ओर लौटना पड़ा। इस पर भी जिन लोगों के पास परंपराओं में लौटने की मजबूरी नहीं थी या जिनके जीवन में विभीषिका स्पष्ट रूप में नहीं परिलक्षित हुई, उनमें से अधिकतर लोगों ने जल-संरक्षण की परंपराओं की ओर लौटना बिलकुल जरूरी नहीं समझा।
राजस्थान जैसे इलाके जहां वर्ष जल का संग्रहण करना जीवन की मजबूरी रही है, को छोड़कर वर्षा जल संग्रहण को अब भी जीवन का अभिन्न हिस्सा, जरूरत, जिम्मेदारी व उत्तरदायित्व नहीं मानना, यह भारतीय समाज की बीमार सोच ही है। भारतीय समाज ने बेढंगे विकास के नाम पर पानी हर स्तर पर सबसे अधिक उपेक्षित व तिरस्कृत किया गया है। समाज व लोगों ने जिन परंपराओं से सबसे अधिक व शीघ्रता से नाता तोड़ा वे पानी से जुड़ी परंपराएं थीं।
गैर-जिम्मेदार सरकार, फूहड़ बेहूदे जल-विभाग/संस्थान/विश्वविद्यालय
भूजल के प्रति मिथकों को पालने पोषने का काम भारत की सरकारों, जल-इंजीनियरों, जल-संस्थानों, तकनीकी-संस्थानों व विश्वविद्यालयों इत्यादि ने भी धुआंधार तरीके से किया। इतना अधिक किया कि अब वापस लौटना तो असंभव है ही, दूर-दूर तक समाधान तक नहीं दीख रहा है। बेसिरपैर के बेहूदे शोध किए गए।
लंबे समय से भारत की सरकारों, उद्योगों, कृषि व लोगों ने अंधाधुंध तरीके से भूजल का प्रयोग किया। भूजल का प्रयोग करने के चक्कर में धरती के ऊपर के पानी के महत्वपूर्ण स्रोतों को खतम कर दिया गया। स्थितियां इतनी अधिक खतरनाक कि सरकार ने खुद एक-एक गांव को अनेक-अनेक हैंडपंप बाटे। पेयजल के नाम पर सरकार हैंडपंप लगाती है या ट्यूबवेल लगाकर टंकियों में पानी भरकर आपूर्ति करती आई है। सरकार जब पेयजल के आकड़े देती है हो लगाए गए हैंडपंपों की संख्या बताती है। कृषि की बात कीजिए तो सरकार गर्व से बताती है कि कितने गहरे व कितनी संख्या में ट्यूबवेल लगवाए गए। भयंकर मूर्खता है, लगातार की गई है, अब भी की जा रही है, बेरोकटोक की जा रही है।
समाधान
पानी बचाना, पानी का समाधान नहीं है, हो ही सकता, बिलकुल ही असंभव है। पानी बचाने की बजाय, पानी पैदा करने की बात करनी चाहिए, यही एकमात्र विकल्प व एकमात्र समाधान है। जब लोग पानी पैदा करना सीख जाएंगे, पानी पैदा करना शुरू कर देंगे। तब अपने आप पानी का सदुपयोग करना भी सीख जाएंगे। अपने आप पर्यावरण व प्राकृतिक संसाधनों के प्रति जागरूक हो जाएंगे।
पानी पैदा करने की घटना से जुड़ी बहुत सी अंतःसंबंधित, अंतःनिर्भर घटनाएं होती हैं, उन सभी से भी स्वतः साक्षात्कार होना चला जाएगा। यही साक्षात्कार होना ही किसी समाज को पानीदार समाज बनाता है, न कि राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय फंडिंग एजेंसीज से फंड प्राप्त करने के तीन-तिकड़म या टीवी चैनलों में साक्षात्कार देना, न कि सोशल मीडिया में जो भी अधकचरा है उसको थूक देना, न कि मीडिया सेलिब्रिटिज्म।
अंतिम बात, भयावह साामजिक-समस्या का समाधान सरल नहीं होता। बहुत ही अधिक साामजिक जीवटता, इच्छाशक्ति, दृढ़ता व दीर्घकालिक सामाजिक-योजनाएं लगतीं हैं।
Vivek Umrao Glendenning "Samajik Yayavar"
- The Founder and the Chief Editor, the Ground Report India group
- The Vice-Chancellor and founder, the Gokul Social University, a non-formal but the community university
- World Peace Ambassador
- The Author, Books
After mechanical engineering graduation and research work in renewable energy systems, he preferred to work voluntarily without a salary with exploited and marginalised communities in very backward areas, rather than taking a job for money.
Getting a PhD scholarship in a European university for a student in India could be a lifetime dream for the people of third world countries, but he preferred to go to work with marginalised communities rather than to accept PhD scholarship by a European university.
To understand ground realities and non-manipulated primary information, he did many thousands kilometres foot-marches covering thousands of villages. By these intense foot marches, mass meetings and community talks, he had face-to-face dialogues with around one million people before the age of forty years.
He has been exploring, understanding and implementing the ideas of social-economy, participatory local governance, education, citizen-media, ground-journalism, rural-journalism, freedom of expression, bureaucratic accountability, tribal development, village development, reliefs & rehabilitation, village revival and other.
In India, he founded or co-founded or strongly supported various social organisations, educational and health institutes, cottage industries, marketing systems and community-universities for education, social economy, health, environment, social environment, renewable-energy, groundwater, river-rejuvenation, social justice and sustainability.
He got married to an Australian hydrology-scientist around fifteen years ago, but stayed in India for more than a decade to work for exploited and marginalised communities. Before marriage, they mutually agreed that until the ongoing works need their physical presence in India, they will not have a baby. That is why they did not make any effort to have a baby for eleven years after the marriage.
Many hundred thousand of people of marginalised communities of backward areas of India love and regard him, also have accepted him as their family. He left all these social-achievements and prestige for living as a forgotten person to become the full-time father for his son. Even before leaving India, he donated everything except some of his clothes, mobile and laptop.
Now he lives in Canberra with his son and wife. He voluntarily writes for Indian journals and social media on social issues. Also, he supports ground activists in India as a counsellor who work for the social solution. He is also associated with some international organisations who work for peace and sustainability.
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For Ground Report India editions, Vivek had been organising national or semi-national tours for exploring ground realities covering 5000 to 15000 kilometres in one or two months to establish Ground Report India, a constructive ground journalism platform with social accountability.
He has written a book “मानसिक, सामाजिक, आर्थिक स्वराज्य की ओर” on various social issues, development community practices, water, agriculture, his ground works & efforts and conditioning of thoughts & mind. Reviewers say it is a practical book which answers “What” “Why” “How” practically for the development and social solution in India.
एकदम खरी बातें लिखी आपने।
बहुत सटीक एवं वैज्ञानिक लेख ….
पानी पर आपने बहुत अच्छा नजरिया पेश किया। सच ही कहा, लोग जल संचयन के लिए कुछ नहीं करना चाहते, सोच यही होती है कि भूजल निकाल लेंगे। वर्षा जल संचयन की तो आदत ही नहीं है।
सबसे बढ़िया बात की पानी अकेले नहीं हैं – यदि उसे बचने की बात कर रहे हैं तो जमीन, जंगल, जानवर, सभी को संतुलित तरीके से संरक्षित करना होगा, हर जीवन चक्र पूर्ण हो यह अनिवार्य है