Sanjiv Kumar Sharma
(एक बाप का बेटे को आखिरी खत)
उम्मीद है तुम खुश होगे और अपनी नयी नौकरी में आराम से होगे। मेरी पोती तान्या और बहु कैसे हैं? तान्या तो अब काफी बड़ी हो गयी होगी बहुत दिन हो गए उसे देखे हुए भी। जब से तुम मुंबई गए हो उससे मिलना ही नहीं हुआ।
मेरी तबियत काफी बिगड़ चुकी है और किडनी के साथ अब दिल भी जवाब दे रहा है। कुछ दवाएं और नलियां मुझे किसी तरह जिन्दा रखे हुए हैं। हॉस्पिट्ल में लेटे हुए रोज मौत, दर्द और हताशा से दो-चार होते हुए मेरी जिंदगी के समझ बहुत गहरी हो गयी है। मुझे अहसास हो रहा है की जिन चीजो को जरूरी समझ कर भागता रहा उनकी असलियत में कोई कीमत नहीं थी। और जो जरूरी चीजें थी उनको भुला दिया। तुम्हारी माँ मर भी गयी और मैं कभी उसके साथ प्यार को ठीक से जी भी नहीं सका।
हो सकता है मैं शायद अब ज्यादा दिन जिन्दा नहीं रहूँ इसलिए तुमको ये खत लिख रहा हूँ। फ़ोन पर ये बातें नहीं कर सकता इसलिए मैंने ये तरीका अपनाया है। मेरी विनती है कि इसे पढ़ना जरूर भले ही तुम्हारे पास समय हो या नहीं हो। ये मेरी असली पूँजी है जो मैं तुम्हारे नाम छोड़ना चाहता हूँ।
सबसे पहले मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ कि ये खत मैं खुद नहीं लिख पा रहा हूँ। मैं लिख ही नहीं सकता। इसे बोल कर लिखवा रहा हूँ। और जो इसे लिख रहा है वो एक नवयुवक है। मुझे मालुम है कि वो मेरी बात से असहज होगा फिर भी उसके बारे में बताना बहुत जरूरी है। वो शायद किसी ऐतिहासिक इमारत में फोटो खींचने का काम करता है ज्यादा नहीं कमाता लेकिन गुजर-बसर हो जाती है। फिर भी जब उसे समय मिलता है तो यहाँ सरकारी हॉस्पिटल में आ जाता है। किसी से दो बातें कर लेता है, किसी को ढांढस बंधा देता है, किसी की हाथ पैरों से मदद हो जाती है तो कर देता है। लेकिन सब कुछ यूँ ही बिना किसी फायदे के, बस यूँ ही अपनी मौज में।
इससे मिल कर मुझे पता चला कि एक बाप के तौर पर मैं तुमको एक बहुत बड़ी बात सिखाना भूल गया कि जिंदगी की महक, उसकी ख़ूबसूरती उन चीजों में समाई है जो यूँ ही की जाती हैं, बिना किसी स्वार्थ के बिना किसी सौदेबाजी के; सिर्फ उस क्षण को जीने के लिए न कि ललचाई हुई निगाहों से भविष्य की और ताकते हुए। सच तो ये है कि मैंने तुम्हारी शुरुआत ही गलत कर दी। पढाई की शुरआत ही कराई इस शर्त पर कि डांट से बचना हो तो पढ़ो, फिर इनाम चाहिए तो पढ़ो, नंबर के लिए पढ़ो, फलानी चीज के लिए पढ़ो, ढिमका चीज के लिए पढ़ो। हर चीज इसलिए करो क्योंकि कुछ हासिल करना है, कुछ पाना है। हर काम इसलिए करो कि किसी से से तुलना करनी है या किसी को दिखाना है।
तुम्हारे मन की जमीन तो खाली थी उस पर महत्वाकांक्षा के बीज मैंने ही बिखेरे। बच्चों के मन की जमीन बड़ी उपजाऊ होती है और उस पर बिखेरे हुए बीज बड़ी आसानी से उगते हैं। सोचा था जब ये फसल पकेगी उसे काट लूँगा। लेकिन मैं भूल गया था कि मैं जहरीली नागफनी बो रहा हूँ। नागफनी बड़ी आसानी से उगती है, फसल खूब होती है लेकिन उसमे कभी फूल नहीं खिलते और जो भी उसके पास आता है उसे जहर और काँटों के सिवा कुछ नहीं मिलता। महत्वाकांक्षा अकेली ही इंसान को खत्म करके उसे एक खतरनाक रोबोट में बदल देने के लिए काफी है, उसे किसी साथ की जरूरत नहीं है। महत्वाकांक्षा के विष से भरा इंसान भष्मासुर होता है वह जिस चीज को हाथ लगाता है राख कर देता। उसके रिश्ते छीना-झपटी से ज्यादा नहीं होते। उसके लिए जीविका जीवन चलाने का साधन या अपने शौक की पूर्ति नहीं होती बल्कि अपने भीतर लगातार टीस देती अपने कुछ न होने की खरोंचों से भागने का जरिया होती हैं और जब किसी तरह उसकी बेचैनी कम नहीं होती तो वह दूसरे को भी खरोंच मारने से बाज नहीं आता।
मैं ये सारी बातें तुम्हें इसलिए नहीं बता रहा हूँ कि मैं तुमसे कुछ चाहता हूँ बल्कि इसलिए बता रहा हूँ कि तुम मेरी वाली गलती न दोहराओ। मैंने साफ़-साफ़ देख लिया है कि मैं तुम से प्यार नहीं करता था बल्कि तुम्हे अपनी सम्पत्ति समझता था। जो कुछ और तरीकों से नहीं मिल रहा था उसे तुम्हारे जरिए हासिल करना चाहता था। अपने सभी डर मैंने जाने-अनजाने तुम्हारे अंदर डाल दिए। शायद चाहता था कि तुम मेरे जैसे बन जाओ ताकि मैं तुम्हारे साथ चैन से जिंदगी काट सकूँ। मेरा ऐशो-आराम बुढ़ापे में भी चलता रहे, ये शरीर ज्यादा से ज्यादा समय तक बना रहे, भोग करता रहे। लेकिन तुम अपनी बेटी तान्या को सच में प्यार करने की कोशिश करना। ये मत समझना कि वो तुम्हारे किसी भी तरह के मानसिक या शारीरिक इस्तेमाल की कोई चीज है। बल्कि वो एक उपहार है जो तुमने खुद अपनी इच्छा से माँगा है। उसे मौका देना कि वो खिल सके, अपनी तरह से बढ़ सके। तुम बस उसे जीवन को महसूस करने देना, बिना किसी डर के अपनी समग्रता में। कोशिश करना कि वो हमारे अंदर भरे हुए डरों के जाल में कम से कम फंसे। धर्म, ईश्वर और मौत बहुत डर फैलाते हैं, इनके डर से उसे यथासंभव बचाना। तथाकथित धर्म और ईश्वर से उसके पवित्र मन को दूर रखना जब वह वयस्क होगी अपने आप समझ लेगी। मौत से उसका परिचय कराना डराना नही। उसे बताना मौत बड़ी मामूली चीज है जो हर पल घट रही है। उसे शमशान या कब्रिस्तान ले जाया करना और दिखाना कि वहां डरने के लिए कुछ है ही नहीं।
और सबसे बड़ी बात उसे बताना कि वो यूनिक है उसे न किसी से प्रतिस्पर्धा करनी है न किसी को कुछ साबित करना और न ही वो कोई शो पीस है जो तुम्हारी या किसी और की शान के लिए इस्तेमाल होना है। वो बस पता लगाए कि उसे क्या करना अच्छा लगता है और फिर उसी में डूब जाए। उसे मौका देना कि वो जिंदगी को वर्तमान में जीना सीखे। चीजों को मौज में करना सीखे, इंसानो से, पेड़ों से, परिंदों से, बारिश की बूंदो से, फूलों पर मंडराती तितलियों से उसका रिश्ता बना रहे।
बस अब विदा !
अपना ख्याल रखना।
तुम्हारा अभागा पिता
Sanjiv Kumar Sharma

Editor, Ground Report India
An author, thinker, translator and a travel-enthusiastic visited almost all states of India in his wheelchair. He had polio paralysis of both the lower limbs at an early age and could not get into the formal system of education, ie schooling. On his own, he started with formal mainstream education at home, and appeared in few exams privately but soon realised about the inadequacy of traditional approach to education and started self-study in his way.
Sanjiv stayed in a room for more than 12 years and spent time in reading books, writing, translating and contemplating on vital issues of human life, society and religion. He has studied literature, philosophy, science, religion and psychology. He started writing during adolescent and continues to write till the date. He has written many articles, poems and stories which got published in various newspapers and magazines. With the area of social media, he also has turned into a prolific writer on the internet.
सब एसे ही बीज बो रहे है
बहुत सुंदर दिल की गहराई से लिखा गया है।हर पिता को अवश्य पड़ना चाहिए सत्यता यही है कि हम उन चीजों के पीछे भागते रहते हैं जिनसे कुछ हासिल नही होता संजीव जी बहुत बहुत बधाई