नीलम बसंत नंदिनी
दुनियां पूरब चलती थी
तो मैं पश्चिम
लडकियों को लंबे बाल पंसद थे
मैंने मान्यताओं पर कैंची चलवायी
लड़कियां दुपट्टों के कलेक्शन करतीं
मैं थान से कपड़ा काट
विद्रोह सिलवाती थी
मैंने ज़िद की वो सब करने की
जो लडकियों के लिए हेय था
पापा हौसला देते रहे
मैं उडती रही…
परकटी, गंजी, लडकों जैसी लडकी..
जैसे संबोधनों को
स्कूटर के पहिए से कुचल
आगे बढती रही..
मैं खराब लड़की थी
पर मुझे वही होना पसंद था!
दसवीं में
मेरी सहपाठिनों ने
विवाह का पिंजरा चुना..
मुझे अकेले जाकर
शहर में किताबों से यारी करनी थी..
मेरी हमउम्रों को माता पिता की मोहर लगा
सुंदर-सा खूंटा चाहिए था
मुझे अपनी ही पंसद के सोलमेट के साथ जीना था..
मेरी पलकों में था वो अनंत व्योम
जिसमें जब जी चाहूँ
पंख फैलाए उड़ सकूं..
मैं मुक्त थी.. मुक्त हूँ..
सामाजिक बंधन वाली मोटी सांकल से
पर…
अभी और मुक्त होना बाकी है..
फ्रीडम जैसी सहज
पर अमूल्य चीज
सरलता से नहीं मिलती..
लड़ना पड़ता है
गालियां खानी पड़ती हैं
तथाकथित समाज की
जीभ और दिमाग से..
और जंग लगी जंजीर खोल
मुक्त होना पड़ता है
रिश्तों के मकडजाल से..
सो कॉल्ड अच्छी बेटी,
संस्कारी बहू,
पतिव्रता पत्नि
मैं बन जाती तो क्या जीवित कहलाती
खुद से संवाद में हार नहीं नहीं जाती..
मुझे आया ही नहीं कभी
उस तरह जीना
एक ही जीवन मिला है
अपनी तरह जीने के लिए…
असंख्य स्वप्न अपूर्ण हैं अभी
असंख्य ख्वाहिशें बाकी हैं…
फेफड़ो में भर ढेर सारी
ऑक्सीजन..
डुबकी लगानी है
चाहतों की मछलियों संग तैरना है..
अपनी ही बाहों का जैकेट ओढ़
खुद को शाबाशी दे
पार करना है
सामने खड़ा एवरेस्ट…
चोटी पर पहुँच
गला फाड़ चीखना है..
अभी मुझे जीना है
ढ़ेर सारा जीना है….!
कमाल का लिखा है आपने।