भ्रांतियों से मुक्त होकर रचनात्मक कान्फ्लिक्ट-रिजोलूशन की गतिमान प्रक्रियाओं को समझने से ही बस्तर में कल्लूरी जैसे पुलिस अधिकारियों की जरूरत व योगदान को समझना संभव हो सकता है

सामाजिक यायावर


प्रस्तावना

मेरा निवेदन स्वीकारें और खुले दिमाग से व्यवहारिकता के साथ इस लेख को पढ़ने का प्रयास कीजिए। लेख कुछ लंबा है इसलिए धैर्य की भी महती जरूरत है।

यदि हम बस्तर क्षेत्र में कान्फ्लिक्ट रिजोलूशन में अपना योगदान देना चाहते हैं तो हमें बस्तर को वास्तविक धरातल से समझना पड़ेगा। बस्तर को समझने के लिए हमें पूर्वाग्रहों, पक्षपातों, पूर्वधारणाओं, भ्रांतियों व फ्रैबीकेटेड-तथ्यों आदि से मुक्त होना पड़ेगा। हमें फ्रैबीकेशन, प्रायोजित-प्रतिस्थापनाओं व प्रायोजित आदिवासी हीरोज के जाल से बाहर आना पड़ेगा। यदि हम वास्तव में बस्तर के आम आदिवासियों के प्रति संवेदनशील हैं तो हमें बस्तर के वास्तविक धरातल को गहराई से समझना पड़ेगा।

बहुत अधिक संभावना इस बात की है कि मेरे इस लेख से छत्तीसगढ़ के नीतिनिर्माता नौकरशाह व नागरिक प्रशासनिक नौकरशाह आदि भी असहमत हों, मुख्यधारा के लोग जो बस्तर की धरातलीय वास्तविकता से परिचित नहीं है उनका असहमत होना तो अवश्यंभावी है।

अधिकतर लोगों के द्वारा असहमत होने की प्रबल संभावनाओं के बावजूद मैं बस्तर समाधान के मुद्दे पर भिन्न दृष्टिकोण से कल्लूरी जैसे पुलिस अधिकारियों के योगदान पर अपनी बात रखना चाहता हूं। कई बार हम वस्तुस्थिति व तथ्यों से परिचित न होने के कारण भिन्न दृष्टिकोण से वस्तुस्थितियों को नहीं देख पाते हैं। बस्तर जैसे क्षेत्रों में समाधान के लिए हमें बहुत सारे कोणों से वस्तुस्थितियों को समझना पड़ता है। पूर्वाग्रहों, पक्षपातों तथा मनगढ़ंत व फ्रैबीकेटेड तथ्यों की भरमार के कारण वस्तुस्थिति को समझ पाना असंभव सा हो जाता है, इसलिए बहुत बार हम इन कारकों के आधार पर अपनी कल्पना, तार्किकता व सैद्धांतिकता के कारण अपना पक्ष चुन लेते हैं जो गलत भी हो सकता है।

जब बात बस्तर की आती है तो माओवाद, आदिवासी, सलवाजुडूम व आदिवासी हीरोज की बात आती ही है। आदिवासी हीरोज से मेरा तात्पर्य उन लोगों से है जिनको बस्तर के आदिवासी लोगों के लिए नागरिक व पुलिस प्रशासन के शोषण के खिलाफ संघर्ष व आदिवासियों के लिए विकास के कार्य करने वालों के रूप में, कुछ NGOs, माओवाद के प्रति झुकाव लिए हुए प्रतिष्ठित लेखकों, प्रोफेसरों व मीडिया आदि के द्वारा प्रायोजित किया जाता है। तथ्यों के फ्रैबीकेशन का मूलभूत कारण निहित-स्वार्थ, पूर्वाग्रह, पक्षों के प्रति झुकाव व वस्तुस्थिति की सही सूचनाएं न होना ही है।

बस्तर में चल रहे कान्फ्लिक्ट-रिजोलूशन के दीर्घकालिक-रचनात्मक समाधान के प्रयासों की चर्चा मैं बस्तर पर अपनी आगामी किताब में कर रहा हूं। यहां इस लेख में बहुत तत्वों पर बात करना संभव नहीं इसलिए केवल कुछ भ्रांतियों पर प्रथम दृष्टया-चर्चा करना चाहता हूं। यदि हम बस्तर से संबंधित कुछ मूलभूत भ्रांतियों को समझ लें तो कल्लूरी जैसे अधिकारियों की जरूरत व योगदान की व्यवहारिकता स्वतः समझ में आने लगती है। यह भी समझ आता है कि कल्लूरी जैसे अधिकारियों के व्यवहारिक योगदान को यूं ही नहीं नकारा जा सकता है।

भ्रांतियां व हमारे मानदंडों का घिनौना दोगलापन

बस्तर से जुड़े कुछ मुद्दों पर बेहिसाब व अनापशनाप भ्रांतियां फैलाई गई हैं। फ्रैबीकेशन व भ्रांतियों का स्तर इतना अधिक संगठित है कि उच्चतम न्यायालय तक को तथ्यों के फ्रैब्रीकेशन से भ्रम में डाल दिया जाता है।

माओवादी व आदिवासी :

 

bomb-narayanpur

बस्तर के बारे में सबसे बड़ी भ्रांति यह है कि माओवादी आदिवासियों का प्रतिनिधित्व करते हैं, आदिवासियों के हित के लिए काम करते हैं और स्थानीय आदिवासी ही माओवादी है। बस्तर के आम आदिवासी की बात तो छोड़ ही दीजिए, वह आदिवासी भी जो संघम का सक्रिय सदस्य है तक भी माओवाद का ककहरा नहीं जानता है। कुछ लोगों को माओवाद के शब्द रटा दिए गए है। जब 12-13 वर्ष की आयु के बच्चों को उनके माता पिता के घर से जबरिया अपहृत कर ट्रेनिंग कैंपों में डालकर कई-कई वर्षों तक वही शब्द व तर्क जबरिया ठूंस-ठूंस कर रटाए जाएंगें तो इससे मानसिक विकास व सोचने विचारने की शक्ति विकसित होगी या कुंठित होगी। स्वयं सोच लीजिए। क्या यह हिंसा नहीं है। बेहद ही खतरनाक हिंसा है। पीढ़ी दर पीढ़ी तक अनवरत चलने वाली हिंसा है।

आदिवासियों की हालत यह है कि वे दिन में सड़क बनाते हैं तो रात में माओवादियों के दबाव में सड़क खोदते हैं लेकिन कहते हैं कि हमने स्वेच्छा से सड़क खोदी। प्रशासन के पास चुपके से आते हैं, कहते हैं कि हमको सड़क चाहिए, स्कूल चाहिए, अस्पताल चाहिए लेकिन माओवादियों को पता न चले कि हम यह सब मांग रहे हैं।

संभव है कि भारत के दूसरे क्षेत्रों में माओवादियों की कोई विचारधारा हो जिसका आदिवासियों या आम लोगों की दुख तकलीफ आदि से रिश्ता हो, लेकिन बस्तर में ऐसा बिलकुल भी नहीं है। बस्तर में माओवाद कैसे पनपा इस पर विस्तृत बात बस्तर पर मेरी आने वाली किताब में होगी। प्रथम दृष्टया आप यह समझिए कि बस्तर में माओवाद बस्तर के आम आदिवासियों का प्रतिनिधित्व बिलकुल नहीं करता है, उल्टे आम आदिवासी माओवाद से त्रस्त है।

सलवा-जुडूम :

सलवा जुडूम के बारे में इतनी अधिक भ्रांतिया फैलाईं गईं कि सलवा जुडूम का नाम लेना भी गाली देना जैसा बना दिया गया। उच्चतम न्ययालय को प्रतिबंध लगाना पड़ गया। अंदाजा लगाया जा सकता है कि तथ्यों को फैब्रीकेट करने व भ्रांतियां फैलाने की श्रंखला कितनी गहरी व ढांचागत है।

सलवा जुडूम के बारे में कितनी ही कहानियां गढ़ी गईं। चूंकि लोग सलवा जुडूम व बस्तर की आदिवासी संस्कृति व धरातल से परिचित नहीं इसलिए गढ़ी गई कहानियां सच मान ली जाती रहीं।

सलवा जुडूम की शुरुआत बीजापुर जिले के एक माओवाद से त्रस्त गांव के तीन-चार बिलकुल निरक्षर व मासूम आदिवासी बंधुओं ने की थी। उनके पास इच्छा तो थी लेकिन ताकत नहीं थी माओवाद की हिंसा से लड़ने के लिए। सलवा जुडूम एक खालिस स्वतःस्फूर्त जनांदोलन था। हजारों-हजार आम आदिवासी इसके साथ खड़ा था। माओवादी नहीं चाहते थे कि इस तरह का कोई जनांदोलन खड़ा हो पाए क्योंकि ऐसा स्वतःस्फूर्त आंदोलन उनके अस्तित्व को खतम कर सकता था। मुख्यधारा के लोगों की इस भ्रांति को खतम कर सकता था कि माओवादी आदिवासियों के प्रतिनिधि हैं।

माओवादियों के कारण सैकड़ों गांवों को वीरान होना पड़ा। सैकड़ों हजारों मासूम आदिवासियों की हत्याएं कर दी गईं। हजारों आदिवासियों को विस्थापित होना पड़ा। लेकिन ठीकरा हमेशा फोड़ा गया सलवा जुडूम के ऊपर।

यदि हम माओवाद के नामपर आदिवासियों के हथियार उठाने को न्यायोचित मानते हैं तो जब माओवाद की हिंसा व शोषण से ऊबकर आम आदिवासी माओवाद का संगठित विरोध करने के लिए स्वतःस्फूर्त जनांदोलन सलवा जुडूम बनाता है तो हम उसका विरोध क्यों करते हैं, जबरिया बदनाम क्यों करते हैं, उसको नष्ट करने के लिए पूरी ताकत क्यों लगा देते हैं। हमारे मानदंड इतने सतही खोखले व दोगले क्यों हैं।

हत्याएं, शोषण व यौन-शोषण :

बस्तर में पुलिस जब किसी का इनकाउंटर करती है तो हम यह साबित करके ही दम लेते हैं कि इनकाउंटर बिलकुल गलत था। लेकिन हम माओवादियों द्वारा की जाने वाली हत्याओं का विरोध क्यों नहीं करते हैं जबकि माओवादियों ने पुलिस की तुलना में कई गुना अधिक मासूम आदिवासियों की हत्याएं की हैं। हम एक लाइन का भी विरोध नहीं करते हैं। पुलिस को नियंत्रित करने के लिए न्यायालय है, मानवाधिकार आयोग हैं, हम और आप हैं। लेकिन हम आदिवासियों की सुरक्षा व विकास व मानवाधिकार के नाम पर माओवादियों का विरोध क्यों नहीं करते, क्या वे ईश्वरीय अवतार हैं। हमारे मानदंड इतने दोगले क्यों हैं।

हम पुलिस कस्टडी में दी जाने वाली प्रताड़नाओं की सच्ची झूठी कहानियों की सत्यता की परख किए बिना तुरंत से सच मानकर पुलिस का विरोध करना शुरू कर देते हैं। लेकिन प्रतिवर्ष माओवादियों द्वारा सैकड़ों 12-13 वर्ष के बच्चे-बच्चियों को बर्बरता पूर्वक उठाकर ट्रेनिंग कैंपों में डाल दिए जाने व वहां पर होने वाले शोषण व यौन-शोषण का विरोध हम क्यों नहीं करते हैं। 

क्या यह मान लिया जाए कि किशोरियों का ट्रेनिंग कैंपों में लगातार होने वाला यौन-शोषण, ब्रेन-वाश कर दिए जाने के कारण यौन-शोषण नहीं रह जाता है। महान मानवीय संवेदनशील व उच्चतर सामाजिक मूल्यों वाला विशिष्ट तत्व हो जाता है।

जांचों व रिपोर्टों की विश्वसनीयता का स्तर

CBI आदि जैसी आधुनिक तकनीक व सुविधाओं से समृद्ध विशेषज्ञ व प्रतिष्ठित संस्थाओं की जांचे भी बस्तर जैसे इलाकों में कितनी सही या गलत हो सकती हैं इसको सिर्फ एक उदाहरण से समझा जा सकता है।

मान लीजिए आप बस्तर के बीजापुर जिले के सुदूर इलाके में जा रहे हैं। रास्ते में आपको दो बच्चे मिलते हैं जिनकी उम्र महज 9 से 13 वर्ष है। वे पत्तों के बने दोनों में जामुन लिए हैं कि यदि कोई उस रास्ते से गुजरे और उनसे जामुन खरीदता है तो उनको पांच दस रुपए मिल जाएंगे। आप जामुन खरीदते हैं। आपको पता नहीं होता लेकिन आपके उस रास्ते से गुजरने की जानकारी ये बच्चे संघम के सदस्यों को देते हैं। लौटते समय माओवादी या संघम सदस्य आपकी खाल को भोथरे पत्थर से छील-छील कर घंटों तड़पा-तड़पा कर आपकी हत्या कर दी जाती है।

अगले दिन वही बच्चे फिर से दोनों में जामुन लिए खड़े होते हैं। आपकी दृष्टि में ये बच्चे नृशंस हत्या के अपराध में भागीदार हैं या नहीं। यदि आप उन बच्चों को हत्या के अपराध में भागीदार मानते हैं तब भी जब तक खुद संघम सदस्य या खुद वे बच्चे नहीं स्वीकारेंगे तब तक आप कैसे साबित कर सकते हैं या जान सकते है कि वे बच्चे हत्या के अपराध में भागीदार थे। आदिवासी यदि संघम सदस्य नहीं भी है तो भी वह क्यों माओवादियों व संघम के विरुद्ध जाने की कोशिश करेगा यह जानते हुए भी कि अगले ही दिन उसकी सपरिवार तड़पा-तड़पा कर हत्या कर दी जाएगी।

अनुवादक यदि स्थानीय है तो क्या वह अपने पूर्वाग्रह के अनुसार तथ्यों को तोड़मरोड़ नहीं सकता। यदि अनुवादक बाहरी है तो वह शाब्दिक व व्याकरणीय अनुवाद तो कर सकता है लेकिन भावात्मक अनुवाद तो नहीं ही कर सकता है जब तक कि स्थानीय समाज को बेहतर तरीके से समझता नहीं होगा। इस तरह के अभावात्मक अधकचरे अनुवाद से कही गई बात का वास्तविक अर्थ व संदेश पूरी तरह से कुछ का कुछ और निकल सकता है। जब CBI जैसी सक्षम अत्याधुनिक तकनीक व सुविधाओं से युक्त संस्थाओं की जांच दावे से पूरी सही नहीं कही जा सकती। जब CBI की भी अपनी सीमाएं हैं तो बाहरी लोग कुछ घंटे या कुछ दिन के लिए किसी स्थान में जाकर वहां के चुनिंदा स्थानीय लोगों से चर्चा करके बिलकुल सही व निष्पक्ष जांच कर पाने का दावा कैसे ठोंक सकते हैं।

ऐसी जांचों का परिणाम मूलभूत रूप से इस बात पर निर्भर करता है कि जांच कर्ता के समक्ष जिस स्थानीय व्यक्ति या समूह को प्रस्तुत किया गया है वह किस पक्ष की ओर झुकाव रखता है। पुलिस आम आदमी की सुरक्षा सुदूर गावों में हर क्षण नहीं कर सकती है, इसलिए अधिकतर ऐसी जांचों में माओवाद के विरुद्ध बात न करना व पुलिस के विरुद्ध में बात करना जीवन के लिए बहुत अधिक सुरक्षित होता है।

मीडिया के जो लोग पहुंचते हैं और कहीं कुछ दिन रुककर लोगों से कुछ चर्चा करते हैं। स्थानीय आदिवासी मीडिया के लोगों का पक्ष व पूर्वाग्रह समझ कर ही अपनी बात रखेगा। बाहर से जाने वाले कितने मीडिया वाले लोग हैं जिनको माओवादियों द्वारा बर्बरता से की जाने वाली हत्याओं की जानकारी दी जाती है। माओवादी गावों से 12-13 साल की लड़कियों को उठा ले जाते हैं, इसकी चर्चा तो उठाई गई लड़कियों के माता-पिता भी बाहरी मीडिया के लोगों से नहीं करते हैं। क्यों करेंगें, क्यों वे अपनी व अपने परिवार की जान खतरे में डालेंगें।

मीडिया के लोगों की रिपोर्टें इस बात पर बहुत अधिक निर्भर करती हैं कि उन्होंने जिन लोगों से बात कीं उन लोगों का झुकाव किस तरफ है तथा खुद मीडिया के लोगों का झुकाव किस तरफ है।

बस्तर के वर्तमान पुलिस महानिरीक्षक “कल्लूरी”

कल्लूरी को मैं प्रत्याक्रमण का विशेषज्ञ पाता हूं। ध्यान दीजिए मैं कह रहा हूं कि वे प्रत्याक्रमण के विशेषज्ञ हैं, मैं यह नहीं कह रहा कि वे आक्रमण के विशेषज्ञ हैं। बस्तर में सुदूर गांवों तक में बिलकुल नीचे तक सूचनाओं के बेहद व्यवस्थित श्रंखला तंत्र की स्थापना व मजबूत पकड़ रखने वाले कल्लूरी हर स्तर पर प्रत्याक्रमण करते हैं माओवादियों की हिंसक घटनाओं जैसी प्रत्यक्ष आक्रमण के प्रत्याक्रमण से लेकर माओवादियों के समर्थकों के द्वारा फ्रैबीकेटेड तथ्यों व आदिवासी हीरोज के प्रायोजन रूपी अप्रत्यक्ष आक्रमण के प्रत्याक्रमण तक।

हर स्तर पर प्रत्याक्रमण की विशेषज्ञता ही कल्लूरी को चहुंओर से आलोचनाओं का शिकार बना देती है। माओवादी, माओवादी समर्थक तथा क्रांति के साथ रोमांस की भावना से नियंत्रित होने वाले वे लोग जो वास्तविक धरातल से अपरिचित हैं या फ्रैबीकेटेड तथ्यों को ही अकाट्य सच मान लेते हैं, आदि जैसे लोग कल्लूरी जैसे अधिकारियों के इस स्तर के भयंकर विरोधी बन जाते हैं कि अपने अंदर वास्तविकता व व्यवहारिकता को समझकर विश्लेषण की संभावना के भ्रूण को भी नहीं उत्पन्न होने देते हैं। धरातलीय वस्तुस्थिति को कान्फ्लिक्ट-रिजोलूशन के व्यवहारिक दृष्टिकोण से देखने समझने की बात तो कल्पनातीत है। 

कल्लूरी व आदिवासी समाज

कल्लूरी व आदिवासी समाज

बस्तर में रहने वाला आम आदिवासी व आम गैर-आदिवासी लोग, जिनका NGO-दुकानदारी या राजनैतिक या माओवाद का समर्थन आदि पर आधारित  निहित स्वार्थ नहीं हैं, अपवाद छोड़कर वे सभी एक तथ्य को स्वीकार करते हैं कि जब से कल्लूरी बस्तर के पुलिस महानिरीक्षक बने हैं तब से माओवादियों की गतिविधियां बहुत अधिक नियंत्रित हुई हैं। घोर माओवादी नियंत्रित इलाकों में भी सड़के, शिक्षा, स्वास्थ्य, सार्वजनिक वितरण आदि नागरिक सेवाएं पहुंची हैं। सैकड़ों गावों के आम आदिवासियों ने स्वयं को सुरक्षित महसूस करना शुरू किया है।

kalluri-sukma

पुलिस व नागरिक प्रशासन के बेहतर तालमेल से ही सुदूर माओवादी इलाकों में विकास व शांति का पहुंच पाना संभव हो पा रहा है। अन्यथा विकास केवल जिला मुख्यालयों तक ही सीमित था क्योंकि तुलनात्मक रूप से जिला मुख्यालय आदि ही सबसे सुरक्षित इलाके थे। जिसने भी अंदर के इलाकों में जाने का प्रयास किया उसकी स्थिति सुकमा के पूर्व जिलाधिकारी अलेक्स पी मेनन जैसी कर दी गई। अलेक्स मेनन ग्रामीण विकास के बेहतरीन आइडियाज के साथ गांव-गांव जा रहे थे, लोगों पर विश्वास करके बिना सुरक्षा के आम-आदिवासी के पास उसके जैसा बनकर पहुंचते थे। सैंद्धांतिक रूप से यह बेहतर बात थी लेकिन व्यवहारिक रूप में यह हुआ कि उनकी इस शैली ने माओवादियों को उनका अपहरण करने के लिए प्रोत्साहित किया। बेहतरीन आइडियाज रखे रह गए।

ज्यों-ज्यों स्थितियां नियंत्रण में आती चली जाती हैं या परिस्थितियां परिवर्तित होती हैं त्यों-त्यों कल्लूरी की क्रियान्वयन नीतियां भी बदलती जाती हैं। माओवाद का प्रभाव क्षेत्र कम होने के साथ ही कल्लूरी ने माओवादियों के आत्मसमर्पण व पुनर्वास की नीति को प्रोत्साहित करना शुरू कर दिया। आत्मसमर्पण करने वाले माओवादियों को मुख्यधारा में सम्मानजनक जीवनयापन करने में भी भरपूर सहयोग करते हैं। कुछ माओवादियों की धूमधाम से शादी भी कराई। 

इस लेख में कल्लूरी की कुछ फोटो दे रहा हूं, इनमें से हर एक फोटो बिना शब्दों के ही बहुत कुछ कहती है।

चलते-चलते

मैंने पिछले ग्यारह-बारह वर्षों में बस्तर को बदलते देखा है। बस्तर के दूर-दराज के कई सैकड़ा गांवों को एक दशक पहले ही देख चुका था। तब बस्तर में सड़कें नहीं होतीं थीं, पेट्रोलपंप नहीं होते थे, मोबाइल नहीं होते थे। एक गांव से दूसरे गांव में जाने के लिए जंगली रास्ते होते थे, माओवाद अपने पूरे उफान पर था ही। न मेरी कोई NGO उस समय थी और न ही आज है, न मुझे वहां जाने के लिए कहीं से कोई फंड मिलता था, न ही मैंने कभी कहीं माओवाद पर कोई लेख या रिपोर्ट ही लिखा। तात्पर्य यह कि मेरा कोई निहित स्वार्थ नहीं रहा, अपितु केवल वस्तुस्थिति को समझने व आम आदिवासियों के विकास की चेष्टा करना ही उद्देश्य रहा। एक दशक से अधिक समय तक मैंने बस्तर को धैर्य के साथ धरातल में रहते हुए देखा, समझा व जाना है।

बस्तर बहुत अधिक बदल रहा है। बस्तर में रचनात्मक विकास की क्रांति हो रही है। यह क्रांति करने वाले बाहर से आए हुए लोग नहीं है वरन हमारे ही देश के वे नौजवान हैं जो कि IAS व IPS बनते हैं। बस्तर में प्रशासन का तालमेल दिखता है। नए अधिकारियों के द्वारा पूर्व के अधिकारियों के काम को आगे बढ़ाया जाना दिखता है।

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री कितना अच्छे हैं या कितना बुरे यह मैं दावे से नहीं जानता। लेकिन एक बात मैं दावे से जानता हूं कि बस्तर में कान्फ्लिक्ट रिजोलूशन की दिशा में जो गंभीर व दीर्घकालिक रचनात्मक विकास व समाधान के कार्य हो रहे हैं, वह रमण सिंह की नेतृत्व दूरदृष्टि के बिना बिलकुल भी संभव नहीं। यह रमण सिंह की इच्छाशक्ति, दृढ़ता व अपने निर्णय शक्ति पर विश्वास ही है कि अनगिनत आलोचनाएं झेलने के बावजूद वे बस्तर में जुझारू व कर्मठ अधिकारियों को भेजते हैं, उन पर विश्वास करते हैं तथा उनको प्रोत्साहन देते हैं।

मैं छत्तीसगढ़ सरकार की कई नीतियों व तौर तरीकों से बिलकुल सहमत नहीं, लेकिन जब बात बस्तर में सामाजिक समाधान व रचनात्मक विकास की आती है तब मैं अपने आपको छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री, उनकी सलाहकार टोली व बस्तर के प्रशासनिक अधिकारियों के साथ खड़ा पाता हूं।  बस्तर में जैसी गति व दिशा चल रही है यदि वैसी ही चलती रही तो आगामी कुछ वर्षों में बस्तर क्षेत्र विकास व नागरिक सुविधाओं के मुद्दे पर देश के सबसे बेहतरीन इलाकों में से होगा।  इसका संपूर्ण श्रेय रमण सिंह, उनकी सलाहकार टोली व प्रशासनिक अधिकारियों को ही जाता है।

IAS अधिकारियों को तो उनके प्रयासों के लिए प्रशंसा व पुरस्कार मिल जाते हैं लेकिन कल्लूरी जैसे अधिकारियों को मिलती हैं सिर्फ गालियां व आलोचनाएं। जबकि बस्तर में कल्लूरी जैसे पुलिस अधिकारियों की उपस्थिति के बिना नागरिक प्रशासन सामान्य मलहम लगाने जैसा छिटपुट सेवा जैसा काम तो करता रह सकता है लेकिन विकास के ठोस व दीर्घकालिक कार्यक्रम नहीं चला सकता है, सुदूर इलाकों में तो बिलकुल भी नहीं।

यदि बस्तर की पुलिस व कल्लूरी सच में वैसे ही राक्षस हैं, रावण हैं जैसा कि प्रायोजित किया जाता है तो बस्तर में विकास व रचनात्मक कार्य संभव ही नहीं हो पाता। रचनात्मक विकास की वास्तविकता तो यह है कि पुलिस का नागरिक प्रशासन के साथ संपूरकता का तालमेल है तभी वहां इतनी गति से काम हो पा रहे हैं।

इसलिए बस्तर को यदि अनबलगन, आर० प्रसन्ना, ओमप्रकाश चौधरी, पी० दयानंद, नीरज बनसोड़, के० देवासेनापथि, अमित कटारिया, अब्दुल हक, अलेक्स मेनन, डा० अय्याज तांबोली, टामन सिंह सोनावानी, सौरभ कुमार व सुश्री अलारमेलमंगई आदि-आदि जैसे IAS अधिकारियों की जरूरत है तो स्व० राहुल शर्मा, अमरेश मिश्र, अभिषेक मीणा, के एल ध्रुव, कल्यान इलेसा, कामलोचन कश्यप, एम० एल० कोटवानी, आर० एन० दास व संतोष सिंह आदि-आदि जैसे IPS अधिकारियों व कल्लूरी जैसे प्रत्याक्रमण विशेषज्ञ पुलिस अधिकारियों की भी जरूरत है।

.

 

kalluri-civic-08

kalluri-civic-07 kalluri-civic-02

 

kalluri-civic-05

 

kalluri-civic-10

 

kalluri-civic-09

.

Bookmark the permalink.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *