जितनी उच्छंखलता से भारत का समृद्ध मिडिल क्लास भारत के संवैधानिक गरिमाओं व लोकतांत्रिक मूल्यों का माखौल उड़ानें में खुद को गौरवांवित व क्रांति का वाहक साबित कर रहा है और परिवर्तनकारी होनें के छद्म को भरपूर अहंकार के साथ से जी रहा है। उसके दूरगामी परिणाम बहुत अधिक घातक होंगें।
समृद्ध मिडिल क्लास की आज की जा रही गतिविधियों से प्रेिरत होकर भविष्य में जब देश का शूद्र, आदिवासी और वास्तविक शोषित/गरीब संवैधानिक गरिमाओं को ताक पर धरना शुरु करेगा तो आज के परिवर्तनकारियों को खोजे जगह नहीं मिलेगी। और होनें वाली क्रियाओं को रोकनें की समझ, ताकत व हिम्मत भी नहीं होगी।
इसलिये कोशिश कीजिये और सत्ता लोलुपता के कारण ऐसा डायनासोर न बनाइये जो कि एक दिन खुद आपके ही अस्तित्व में प्रश्नचिंह खड़ा कर दे।
कोशिश कीजिये कि दो बातों को अपनें अहंकार को और सत्ता लोलुपता को तिलांजलि देते हुये समझनें का प्रयास कीजिये-
- सामाजिक परिवर्तन गंभीरता, धैर्य और सामाजिक समझ व ठोस सामाजिक रिश्तों के जमीनी आधार से होते हैं।
- जो व्यवहार करके आज आप अपनें लिये लाभ प्राप्त करनें के नशे में जी रहे हैं वही व्यवहार यदि अधिसंख्यों नें सीख लिया तो खुद आपका अपना वजूद हमेशा के लिये भयंकर खतरे में पड़ जायेगा, और उस परिस्थिति को रोकना बिलकुल ही असंभव होगा आपके लिये।
भारत के शोषित लोगों, शूद्रों (परंपरागत सामाजिक शोषित) व आदिवासियों को समझनें का छद्म अहंकार छोड़िये और ऐसा कोई व्यवहार न कीजिये जो उनको कोई ऐसा रास्ता चुननें को प्रेरित करे कि खुद आपका अपना वजूद ही हमेशा के लिये खतरे में पड़ जाये।
मैंने समय समय पर कहता ही रहता हूं कि बिना समाज को गहराई से समझे हुये केवल खुद को महाज्ञानी व महा-परिवर्तनकारी माननें के छद्म व अहंकार में की गयीं मूर्खताओं और सत्ता-लिप्सा की प्रेरणा से की गयी गतिविधियों से देश को गृहयुद्ध में झोंका जा सकता है।
और यदि भविष्य में भारत गृहयुद्ध की परिस्थितयों की ओर अग्रसर होता है तब न तो टीवी चैनलों के प्रकांड सामाजिक व राजनैतिक समझ के लोगों की अद्वितीय समझ ही किसी काम के लायक होगी, न ही अखबारों के संपादक व पत्रकार लोगों की अद्वितीय जमीनी समझ ही किसी काम के लायक होगी और न ही NGO के मठाधीशों का फंड्स, प्रोजेक्ट्स और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त कर पानें की मार्केटिंग व अकाउंट मेंटेंन करनें की दस्तावेजी समझ ही किसी काम के लायक होगी।
इसलिये जो भी कीजिये वह नशा कुछ कम करके कीजिये। दुनिया में कई प्रकार के नशे होते हैं। नशा इसलिये बुरा होता है क्योंकि यह मनुष्य की सोचनें समझनें की क्षमता को अस्थायी रूप से क्षीण कर देता है, जो कि शोषण और जीवन के दर्द को भूलनें में मदद करता है और लगातार खुद का शोषण करवानें के लिये नियति को स्वीकारनें की कमजोरी भी देता है या कभी कभी नशा तात्कालिक तौर पर भूलनें की ताकत देता है ताकि मन को दबाव में भी रिलैक्स किया जा सके।
हर प्रकार के नशे में होनें के लिये कुछ खानें, पीनें, सूंघनें या छूनें वाले पदार्थ की ही आवश्यकता नहीं होती है, कुछ नशों के लिये किसी पदार्थ के प्रयोग करनें की आवश्यकता नहीं होती है।
मेरा सुझाव है कि न तो खुद को नशे में रखिये और न ही समाज के लोगों को नशे में रखिये। नशा है तो एक न एक दिन टूटता ही है। और कुछ नशे ऐसे होते हैं जो यदि टूटते हैं तो नशा दिलानें वालों को बहुत विध्वंस की ओर ले जाते हैं।
बहुत लोग दावे से ऐसा कहते रहते हैं कि भारत में गृहयुद्ध नहीं आ सकता है। मैं ऐसे लोगों को बहुत ही अधिक हवाई और वाहियात मानता हूं।
भारत के लोकतांत्रिक ढांचे को, भारत के संवैधानिक गरिमा का मजाक उड़ानें की गलतियां ऐसी मूलभूत गलतियां हैं जो कि ऐसी गंभीर गलतियां हैं जो कि आनें वाले समय में देश को लंबे गृहयुद्ध में धकेल सकतीं हैं।
देश, देश के संविधान, देश के लोकतंत्र व समाज यहां तक कि जातिवाद जैसी घिनौनी नीचता नें भी आपको बहुत कुछ दिया है। इसलिये जो मिल चुका है और अभी जो और मिलनें वाला है उसको भोगिये और समाज का आदर कीजिये। और भोगनें के लिये तरीके प्रयोग कीजिये किंतु कुछ ऐसी मूलभूत गलतियां मत कीजिये जो कि देश को सिर्फ समृद्ध मिडिल क्लास की लिप्साओं के लिये गृहयुद्ध में धकेल दे।
लोकतंत्र में राजनैतिक सत्ता प्राप्त करनें से या राजनैतिक सत्ता में बनें रहनें से या राजनैतिक सत्ता को घिसटते हुये या सरलता से चलाते रहनें से … ना तो व्यवस्था परिवर्तन होते हैं, न ही सामाजिक बदलाव होता है और ना ही राजनैतिक सामाजिक चेतना का ही विकास होता है।
इन परिवर्तनों व विकास के लिये मूलभूत तत्व होते हैं – समझ, दृष्टि व सामाजिक इमानदारी वह भी अपनें खुद के स्वार्थों व स्वकेंद्रित लिप्सा और अहंकार से ऊपर उठकर !!