Sangeeta Gandhi PhD
सिनेमा के विषय मूल रूप से सामाजिक,सांस्कृतिक मूल्यों पर आधारित होते हैं। समाज की प्रचलित मान्यताओं को ही अधिकतर सिनेमा में अभिव्यक्ति मिलती है। सामाजिक परिप्रेक्ष्यों से अलग हटकर चित्रण मुख्य धारा के हिंदी सिनेमा में गिना-चुना ही है। यही बात हिंदी फिल्मों में -किन्नर व समलैंगिक समाज के चित्रण के संदर्भ में भी कही जा सकती है। इस समाज पर बहुत अधिक फिल्में नहीं बनी। जो बनी भी हैं, वे या तो इस समाज की हास्यात्मक अभिव्यक्ति करती हैं। या मात्र उतेजक सामग्री परोसती हैं। कुछ गिनी चुनी फिल्में ही हैं, जिनमें समाज के ये उपेक्षित वर्ग सशक्त उपस्थिति दर्ज करवाते हैं।
भारतीय सामाजिक सरंचना में किन्नर व समलैंगिक वर्ग सदैव हाशिये पर रहा है। भले ही इतिहास व मिथकों में बृहन्नला व शिखंडी जैसे चरित्र विद्यमान रहे हों। सामाजिक दृष्टि से तो ये वर्ग उपहास व विकृति के पर्याय रहे हैं। कानूनी दृष्टि से भी इन्हें उपेक्षित रखा गया है। किन्नर समाज सदा उपेक्षित रहा है। 15 अप्रैल 2014 को सुप्रीम कोर्ट ने किन्नर वर्ग को थर्ड जेंडर के रूप में मान्यता दी है। समलैंगिक अभी भी ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की 1880 की धारा 377 को ढो रहे हैं।इस आधार पर उन्हें अपराधी माना जाता है और इस पर मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है।1993 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने समलैंगिकता को प्राकृतिक वृत्ति घोषित कर दिया था पर भारत में अभी इन्हें पहचान मिलना बाकी है।
फिल्में समाज का आईना होती हैं। समाज किन्नर, उभयलिंगी व समलैंगिक समाज को हाशिये पर रखता है। फिल्मों में भी इस समाज को मुख्यतः हास-परिहास वाले कॉमेडी पात्र के रूप में स्थान मिला है। अभिनेता महमूद की फ़िल्म ‘कुंवारा बाप’ में किन्नर समुदाय पर एक गीत फिल्माया गया है। इन्हें परम्परागत रूप में जन्म के अवसर पर गाते, नाचते दिखाया गया है। बहुत सी फिल्मों में किन्नर पात्र का चित्रण इसी रूप में मिलता है। विवाह, जन्म आदि के अवसर पर बधाई गीत गाते हुए ही अधिकांशतः नज़र आते हैं।
हिंदी फिल्मों में ये वर्ग स्त्रैण गुणों से युक्त एक विदूषक के रूप में चित्रित होता आया है। सामाजिक ताने-बाने का असर फिल्मों पर भी होता है। समाज इनकी हंसी उड़ाता है तो फिल्मों में भी यह वर्ग हास्यात्मक अभिव्यक्ति पाता है।
‘कल हो न हो’ फ़िल्म में गे सम्बन्ध तो नहीं हैं पर ‘गे सीक्वेंस’ को कॉमेडी रूप में चित्रित किया गया है। वास्तविकता यह है कि समाज समलैंगिकता को विकृति मानता है। यही कारण है कि हिंदी फिल्मों में इस प्रकार के सम्बन्ध कॉमेडी रूप में दर्शाए जाते हैं। ‘दोस्ताना’ फ़िल्म में अभिनेता अभिषेक बच्चन व जॉन अब्राहम समलैंगिक होने का नाटक करते हैं। यहां भी समलैंगिकता हास्य की वस्तु है। किन्नर वर्ग पर बनी फिल्मों में ‘शबनम मौसी’ प्रमुख है। यह फ़िल्म प्रथम किन्नर विधायक शबनम के जीवन पर आधारित है। उसके संघर्ष, पीड़ा का सजीव चित्रण फ़िल्म में हुआ है। अभिनेता आशुतोष राणा ने शबनम मौसी का किरदार निभाया है।
किन्नर वर्ग पर आधारित दूसरी उल्लेखनीय फ़िल्म है ‘तमन्ना’। किन्नर टिकू व लड़की तमन्ना की कहानी पर आधारित यह फ़िल्म इस समाज को नई दृष्टि से देखने की सोच देती है। टिकू अनाथ लड़की तमन्ना को पालता है। कितनी तरह की कठिनाइयां उसके सामने आती हैं। परिस्थितियां कैसे उसे बार बार यह जताती हैं कि वो एक किन्नर है! इस पीड़ा की सशक्त अभिव्यक्ति इस फ़िल्म में मिलती है। अंततः फ़िल्म यह संदेश देती है कि किन्नर भी इंसान हैं। उन्हें इसी रूप में सम्मान दो। फ़िल्म में परेश रावल व पूजा बेदी ने मुख्य भूमिकाएं निभाई हैं।
1996 की फ़िल्म ‘दरमियान’ में 1940 के दशक की एक अभिनेत्री व उसके किन्नर पुत्र की कहानी है। अभिनेत्री अपने पुत्र को स्वीकार नहीं करती, उसे समाज से छुपा कर रखती है। कहानी पारम्परिक सोच को ही दर्शाती है। किरण खेर व आरिफ जकारिया ने फ़िल्म में मुख्य भूमिकाएं निभाई हैं।
किन्नर वर्ग का एक बिल्कुल अलग रूप फ़िल्म ‘सड़क’ में मिलता है। इस फ़िल्म में किन्नर ‘महारानी’ का किरदार एक खलनायक है।एक क्रूर खलनायक जो नायक, नायिका का शत्रु है। परम्परागत किन्नर चित्रण से अलग यह नवीन प्रस्तुति थी। ऐसा लगता है कि जैसे किन्नर महारानी पात्र समाज से अपनी स्थिति का प्रतिशोध ले रहा है। मुख्य भूमिका सदाशिव अमरापुरकर ने निभाई थी। इसके बाद कुछ अन्य फिल्मों में भी किन्नर पात्र खलनायक के रूप में प्रदर्शित हुए।
समलैंगिक सम्बन्धों को हमारा समाज व कानून भले मान्यता न देता हो पर इन सम्बन्धों पर पिछले कुछ वर्षों में बहुत सी फिल्में बनीं हैं। ये फिल्में बहुत सफल नहीं रहीं । इनकी एक बड़ी कमी है- इनमें सहज समलैंगिक सम्बन्ध दिखाने के स्थान पर मात्र उतेजक विषय वस्तु को लिया गया है।
रागिनी एमएम एस 2, ओमर, आई कांट थिंक स्ट्रेट, बॉम्बे टाकीज़, गर्ल फ्रेंड आदि फिल्में इसी प्रकार की हैं। रीमा कागती की फ़िल्म ‘हनीमून ट्रेवल्स’ समलैंगिक सम्बन्धों के बारे में एक मुद्दा उठाती है। यदि किसी गे का विवाह अपनी सोच से विपरीत स्त्री से हो जाये तो क्या परेशानियां आती हैं? इन प्रश्नों को इस फ़िल्म में दिखाया गया है।
मधुर भंडारकर की फिल्मों ‘पेज 3’ व ‘फैशन’ में इन सम्बन्धों का एक नया पक्ष प्रस्तुत हुआ है। आगे बढ़ने व सफलता पाने के लिए समलैंगिक रिश्ते बनाना। ‘फैशन’ व ‘हीरोइन’ फिल्मों में परिस्थितिवश बने लेस्बियन रिश्ते प्रस्तुत हुए हैं।
समलैंगिक लेस्बियन रिश्तों पर सबसे उल्लेखनीय फ़िल्म दीपा मेहता की ‘फायर’ है। 1996 कि ये फ़िल्म बहुत विवादित भी रही। इसे कई पुरस्कार भी मिले। शबाना आज़मी व नंदिता दास की इस फ़िल्म में मुख्य भूमिकाएं थीं। पितृसत्तात्मक समाज के दबे घुटे माहौल में पीड़ित दो स्त्रियाँ सारे बन्धन तोड़ देती हैं। पुरुषों से प्राप्त उपेक्षा उन्हें एक दूसरे के करीब लाती है।
यहां महत्वपूर्ण यह है कि उनमें जन्मजात समलैंगिक वृति नहीं है। परिस्थितिवश एक दूसरे से प्राप्त सम्वेदना उन्हें इन सम्बन्धों के लिए प्रेरित करती है। पद्मावत फ़िल्म में अल्लाउदीन खिलजी व मलिक काफूर के ऐतिहासिक समलैंगिक रिश्तों को भी दिखाया गया है।
हिंदी फिल्मों में किन्नर वर्ग व वैकल्पिक यौनिकता (उभयलिंगी, समलिंगी) वर्ग पर फिल्में तो बनी हैं पर इन वर्गों के संघर्ष, चेतना, पीड़ा को प्रचुरता से नहीं दर्शाया गया। इस समाज की पहचान, अस्मिता को केंद्र में रखकर इनकी शिक्षा, व्यवसाय, सामाजिक स्थान व स्वीकृति पर आधारित फिल्मों का निर्माण अभी शेष है।
Sangeeta Gandhi PhD
शोध कार्य:
- पाली -सम्वेदना और शिल्प
- अमृतलाल नागर जी के उपन्यासों में सांस्कृतिक बोध
सम्मान:
- वनिका प्रकाशन व लघुकथा गागर में सागर की ओर से लघुकथा लहरी सम्मान से सम्मानित
- साहित्य सागर व सत्यम प्रकाशन की ओर से काव्य गौरव व काव्य सागर सम्मान से सम्मानित
प्रकाशित संग्रह:
- दास्ताने किन्नर कहानी संग्रह में कहानी प्रकाशित
- स्वाभिमान, नए पल्लव 2 संग्रह,आस पास से गुजरते हुए, समकालीन प्रेम विषयक लघुकथाएं, नई सदी की लघुकथाएँ, परिंदों के दरमियाँ, सहोदरी लघुकथा संग्रह में लघुकथाएँ प्रकाशित
- सहोदरी सोपान 4 साझा काव्य संग्रह,मुसाफिर साझा काव्य संग्रह, समकालीन हिन्दी कविता संग्रह प्रकाशित
- व्यंग्य प्रसंग ,कहानी प्रसंग ,कविता प्रसंग संग्रहों में क्रमशः व्यंग्य ,कहानी व कविताएँ प्रकाशित
पत्रिकाएं:
अविराम साहित्यिकी, आधुनिक साहित्य, लघुकथा कलश, दृष्टि, विभोम स्वर, शुभ तारिका, सरस्वती सुमन, शैल सूत्र, निकट, ककसाड़, शेषप्रश्न, अट्टहास, अनुगुंजन, नायिका, पर्तों की पड़ताल, सत्य की मशाल, सुरभि, नारी तू कल्याणी, प्रयास, अनुभव, सन्तुष्टि सेवा मासिक, बुन्देलखण्ड कनेक्ट, प्रणाम पर्यटन, आदि ज्ञान, नवल, क्राइम ऑफ नेशन, शतदल समय, पत्रिकाओं में कविता, लघुकथा, लेख, व्यंग्य प्रकाशित।
Analysis is very accurate in reality in our country and clearly depicts the hesitation of the society as a whole and emphesises the need to rethink to get a positive response to the biological disorder and social problem
समीचीन विषय को उठाया है और उसका सरल रूप में विश्लेषण किया है। लेख पढ़ कर अच्छा लगा।
एक बहुत ही सुन्दर आलेख, किन्नरों का तिरस्कार करने से पहले समाज यह क्यों भूल जाता है कि वे भी मनुष्य ही हैं. आपके इस सराहनीय प्रयास के लिए आपको ढेर सारी शुभकामनाएँ
शानदार लेख।
बहुत अच्छा विषय उठाया गया है, किन्नरों को फिल्मों में या सामान्य जीवन में हम हंसी का पात्र ही मानते हैं इसमें कोई दो राय नही है, आजतक हमने शायद ही किसी किन्नर से उसका नाम पूछा हो बस छक्का कहकर बुलाते है, इसे पढ़ने के बाद एक नए तरीके से इनके बारे में सोचने की जरूरत है !!
बेहतर जानकारी भरा लेख आपको साधुवाद
भारत मे बॉक्स ऑफिस कलेक्शन द्वारा मूल्यांकित और सिने निर्माण हेतु प्रेरित सिनेमा किसी गंभीर विषय पर गम्भीर परिचर्चा विषयक वातावरण प्रदान करेगा ऐसी अपेक्षा करना ही बेकार है।
लेखक ने लेखन हेतु एक महत्त्वपूर्ण विषय का चुनाव किया इसके लिए उन्हें साधुवाद। शोधकार्य में मेहनत दिख रही है।
आपका लेख, 24 दिसंबर को पर सिनेमाहौल में प्रकाशित मेरे लेख से अश्चर्यजन रूप से समानता रखता है. मेरे इस लेख का विषय भी थर्ड जेंडर था जिसका शीर्षक था-सिनेमा तीसरे का, लिंक शेयर कर रही हूं http://cinemahaul.com/cinema-teesre-kaa/
चौकाने वाली बात ये है कि जिन फिल्मों पर मैने चर्चा की आप ने भी उन्हीं फिल्मों पर लिखा
इतना ही नही लोकमत समाचार की मैग्जीन उत्सव प्लस मे प्रकाशित मेरे लेख ‘सिनेमा के प्रिज्म से एलजीबीटी’ से भी यह लेख मिलता है
बताती चलूँ 377 के बारे मे भी आपकी जानकारी कमजोर है
बाकी सब तो ठीक है, लेकिन प्रारंभ में जो कहा गया कि किन्नर समाज में सदा से हास्यास्पद स्थिति में रहे, यह गलत है।
अंग्रेज़ी शासन से पहले इनके विषय में कुछ भी हास्यजनक लिखा नहीं मिलता। सामान्य हिस्सा रहे हैं समाज का।
प्रयास अच्छा है।
अंग्रेजी शासन के पहले सामाजिक कुरीतियों के संदर्भ में ईमानदारी से लिखा ही क्या जाता था?
लेख अच्छा है, हासिये पर पड़े थर्ड जेंडर कि भी उतनी ही फिक्र समाज और सरकार को होनी चाहिये जितनी कि दोंनो के प्रति है।
समलैंगिकता किसी भी प्रकार से उचित नहीं है। स्त्रियों के पक्ष में फिरभी इसे अनदेखा किया जा सकता है क्योंकि समाज में यदाकदा ही यह देखने में आते हैं किंतु पुरुषों के बीच समलैंगिकता एक विकृति है ,समलैंगिकता दो वयस्क पुरुषों के बीच लम्बे समय तक चलने वाला रिस्ता न होकर इस बात की सम्भावना अधिक होती है जिसमें एक पक्ष अपनी कामुकता के लिए अपने आसपास के समान लिंगी को बिना उसकी उम्र और दिलचस्पी के उस दिशा में ले जाने की चेष्टा करता है।