Sarita Bharat
माँ तुझमें अपना अक्स देखती हूँ
सम्पूर्ण एहसास के साथ
उतर जाती हूँ तुम्हारे भीतर,
अपनी पदचाप की रफ्तार पर सोचती हूँ
लोहे की कोख से लोहा जन्मा था बचपन में मरमरी सी देह पर तेल मालिश करती हाथों का स्पर्श महसूसती हूँ!
तुम्हारे सीने के दूध की सुगंध आज भी मेरे नथुनों में भर जाती है!
पालक का साग और बेसन की तरकारी का स्वाद
अपनी बनाई सब्जियों में खोजा करती हूँ!
खुद में ढूंढती हूँ प्रतिबिम्ब तुम्हारा संघर्षों के पड़ाव पर फिर उठ खड़ी होती हूँ
याद करती हूँ वो दिन माँ!
जब समाज के झूठे तानों के आगे तनकर खड़ी हो जाती थी तुम
चट्टान की मानिंद!
हम बेटियों के लिये भिड़ जाती थी तुम भेड़ियों से!
समाज, परिवार और देश की चिंता में एक चिंता एक शब्द चलता रहता है अक्सर भीतर!
माँ तुमारी धुंधली परछाई अक्सर कुछ करने से पहले कह जाती है!
माँ, सृष्टि की रचनाकार!
इस यथार्थ को शब्दों में संजोकर
काश! रच सकती नया इतिहास!
मानो शब्दों की खाली पोटलिया आकाश में टँगी है
और मैं खड़ी सोच रही हूँ!
कैसे दे पाउंगी माँ शब्द को सार! सिर्फ अपनी पथराई आँखों में देखती हूं अक्स तुम्हारा!
और फिर संपूर्ण अहसास के साथ उतर जाती हूँ अपने भीतर!
माँ हर पल प्रेरित होती हूँ
जिंदगी के भीतर और बाहर के संघर्ष के लिए
माँ यह सबकुछ तुम्हीं से तो सीखा है!
Wow aunty u r great ND ur poem is excellent keep it up
Nice Sarita
Wah ji vary nice.your poem is true about mother
Ram
Aap hmesa ki trh accha likhe hai..
Vrtmaan smaaj ke sajivta ka varnan adbhut hai
Wowwww dear Sarita ji bohot khoob likkha hai aapne maa ke liye.
Wow didi kaas sari duniy ki betiyan aapki tarah ho very good
Nice sarita u r great poem